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सितंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विंटर ब्रेक

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सर्दी अकेली नहीं आती। अपने साथ विंटर ब्रेक, कोहरा, गलन भी लाती है। पहाड़ों पर बर्फ और मैदान पर शीतलहर का राज चलता है। एक चीज और लाती है सर्दी अपने साथ। न्यू ईयर। नये साल के जोश में चूर हम ठंड को ओढ़ते और बिछाते हैं। होटल, रेस्टोरेंट और सड़क पर जश्न मनाते हुए सर्दी का स्वागत करते हैं। सड़क पर ही बहुत से लोगों को कड़कड़ाती सर्दी सीमित कपड़ों और खुले आसमान में गुजारनी होती है।  चाय, काॅफी पीते और तापते हुए बोलते हैं ऐसी नहीं पड़ी पहले कभी। सर्दी का यह तकियाकलाम अखबारों में रोज रिकाॅर्ड बनाती और तोड़ती हेडलाइन को देखकर दम भरता है। मुझे विंटर ब्रेक का इंतजार औरों की तरह नहीं रहता। मैं पहाड़ों की जगह अपनी रजाई में घूम लेता हूं। मनाली, नैनीताल और मसूरी में गाड़ियों की कतार मुझे अपनी ओर नहीं खींच पाती। क्योंकि पत्नी और बेटे की छुट्टी रहती है और बाहर हम कम ही जाते हैं इसलिए मेरे ड्यूटी कुछ सख्त हो जाती है। रूटीन बेपटरी होने की शुरुआत अलार्म नहीं बजने से होती है। देर से सोना और सुबह जब मन करे उठना यह एैब इंसान को बर्बाद कर सकता है। दुनिया से काट देता है।  सर्दी बच्चों को बेकाबू होने की छूट देती है। नहान

मेड बिना चैन कहां रे...

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यह बात सच है। यकीन नहीं आता तो महिलाओं के दिल से पूछो। इनके बिना तो पुरूष भी पीड़ित हैं। महिला सशक्तिकरण में मेड का अभिन्न योगदान है। ये हमारे घर में पौचा और बर्तन घिसती हैं, तब जाकर वक्त मिलता है अपनी करियर और खुद को चमकाने का। इसके बदले हम इन्हें कुछ पैसे जरूर देते हैं, लेकिन इनकी उपयोगिता कहीं अधिक है। ये न हों तो नौकरी करनी मुश्किल हो जाए। घर में जब से मेड को मना किया है, मैडम का मन उदास और शरीर थकास से भरा रहता है। संबंध तनाव से गुजर रहे हैं। संवाद उत्तेजना से लबालब है। भला इन हालातों में मेड का गुणगान और चर्चा क्यों न करें। लाॅकडाउन के बाद मेड की आवाजाही शुरू हो चुकी है, लेकिन अभी भी बीते दिन लौटने बाकी हैं। दे मेड फोर Each अदर जिन्हें हम काम वाली बाई, नौकरानी और मेड कहते हैं, दरअसल ये महानगरों की लाइफ लाइन हैं। भागदौड़ भरी जिंदगी इनके बिना ठहर सी जाती है। घर में करने को इतने काम हैं कि दिन गुजर जाए पर काम खत्म नहीं होते। सुबह से शाम कब हुई पता ही नहीं चलता। तीन वक्त का खाना, झाडू, पौचा, कपड़े धुलना, प्रेस करना, चाय बनाना, बर्तन आदि बहुत सारे नाॅन प्रोडेक्टिव काम हैं, जिनको गिनने मे

कोरोना से भी घातक बीमारी, टेस्ट भी नहीं

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कोरोना ने जिंदगी में ठहराव ला दिया है। यह शायद पहली बीमारी है, जिसका वैश्वीकरण हुआ है। बीमारी से ज्यादा इसका डर सता रहा है। टेस्ट के नाम पर दिल घबराने लगता है। धड़कनें बढ़ जाती हैं। वैसे कोरोना से भी घातक और वैश्विक बीमारी मौजूद हैं। न तो इनका टेस्ट है और न ही कोई वैज्ञानिक इलाज। फिर भी हम इनके साथ जी रहे हैं। शरीर में लेकर घूम रहे हैं। ये बीमारियां हमारे दुखों का मूल कारण हैं। कुछ इन्हें समझना नहीं चाहते तो कुछ दूर करने की हिम्मत नहीं दिखा पाते। ईर्ष्या से इश्क छोड़िये ईर्ष्या मतलब जलन। किसको नहीं होती? अपने अंदर झांककर देखेंगे तो पाएंगे कि शायद आप भी इसके मरीज हैं। यह किसी भी बात को लेकर हो सकती है। उसके पास नई कार है, मेरे पास नहीं है। वह बढ़ी बन-ठनकर रहती है, चश्मा लगाना भी दूसरे को अखर सकता है। यानी हर वो काम जो आप नहीं कर सकते या वो चीज़ जो आपके पास नहीं है, जलन की वजह बन सकती है। ईर्ष्यालु प्रवृत्ति नैर्संगिक सी लगती है। तारीफ करने की जगह हम जलने लगते हैं। इसमें नुकसान हमारा ही है। बेवजह का तनाव दिमाग में पाल लेते हैं। संबंध बनने की जगह बिगड़ जाते हैं। ईर्ष्या  से इस कदर इश्क हो जाता

आईपीएल में तकनीकी तालियों की गूंज

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आईपीएल का 13वां सीजन शुरू हो चुका है। चौके-छक्के का नजारा और धड़कन बढ़ाने वाले मुकाबले मनोरंजन करने को हाजिर हैं। दर्शक दीर्घा खाली है, लेकिन तालियों का शोर थमा नहीं है। कृत्रिम आवाज टीवी सैट के दर्शकों को तालियों की कमी महसूस नहीं होने दे रही। तकनीकी तालियां बज रही हैं और माहौल बना रही हैं। आईपीएल में और कई बदलाव आए हैं। कोरोना ने जिस तरह लोगों की जिंदगी बदली है, वैसे ही क्रिकेट की भी बदली है।  बल्ले पर बाॅल, ताली शुरू बात फिल्म की हो या क्रिकेट की। अगर फैंस नही तो मजा नहीं। यूएई की धरती पर आईपीएल के रोमांच कम नहीं हुआ है। महामारी में मनोरंजन को तरस रहे क्रिकेट के दीवानों के लिए यह संजीवनी है। मैदान पर खिलाड़ी दर्शकों की कमी महसूस कर रहे हैं, लेकिन आयोजकों ने स्क्रीन पर देखने वालों के लिए तकनीकी तालियों का इंतजाम किया है। रिकाॅर्डिंग तालियां या सिंक इनको कहते हैं। हर चौके-छक्के और विकेट गिरने पर यह अनवरत बजती रहती हैं। बल्ले पर बाॅल आते ही इनको बजना होता है। चीयर गर्ल्स का न ठुमकना थोड़ा अखर सकता है। दर्शकों के तरह-तरह के मूड और क्रिएटिविटी नदारद है। पर बल्ले और बाॅल के संपर्क का मजा लंबे

सुनो थाली कुछ कहती है

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थाली से तो वाकिफ होंगे आप। वही जो रसोई में खड़ी रहती है। आजकल चर्चा में बनी है। आमतौर पर थाली पर चर्चा बजट के आने पर होती है। इसको मानक मानकर मीडिया याद दिलाती है कि किसकी थाली में क्या-क्या आया है? महंगाई बढ़ने पर भी इसको याद कर लिया जाता है। थोड़े दिन पहले कोरोना वाॅरियर के सम्मान में सबने एकमुश्त बजाई थी। वैसे बेरोजगारी को लेकर भी इन दिनों थाली पीटी जा रही है। थाली एजेंडा बन चुकी है।  इसकी गूंज ग्लैमर की गलियों तक पहुंच गई है। कह सकते हैं कि थाले की चर्चा में तड़का लग गया है। अदाकारा और सांसद जया बच्चन के संसद में बयान के बाद थाली पर बाॅलीवुड में समुंद्र मंथन शुरू हो गया है। अभिनेता और सांसद रवि किशन ने संसद में बालीवुड में  ड्रग्स के इस्तेमाल का मुद्दा उठाया तो उनकी हमपेशा और सांसद जया बच्चन को यह नागवार गुजरा। उन्होंने पलटवार किया कि 'कुछ लोग जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं'। तब से बालीवुड में थाली की नापतौल और किसकी थाली में क्या है, इस पर विमर्श चल रहा है? अभिनेत्री कंगना रनौत ने थाली बयान के संस्करण में यह कहकर की 'छोटे से रोल के लिए अभिनेत्री को हीरो का साथ

ट्रंप के नोबेल दावे पर मचा शोर

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फोटो फिल्म डेली डॉट कॉम वेबसाइट से ली गई है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप नोबेल पुरस्कार के नाॅमिनेशन को लेकर चर्चा में हैं। उन्होंने दूसरी बार शांति के लिए पुरस्कार पाने की चाहत का इजहार किया है। चुनाव है इसलिए चर्चा इस बार कुछ ज्यादा ही है। इस पर वह खर्चा भी कर रहे हैं। तीन नवंबर को अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आएंगे। उससे पहले अक्तूबर के पहले सप्ताह में नोबेल फाउंडेशन 2021 के पुरस्कारों की घोषणा कर देगी।  वैसे अपने ट्रंप चचा हमेशा चर्चाओं में रहते हैं। कभी अपनी बातों से तो कभी इरादों से। दुनिया में जहां-जहां दो मुल्कों में तनाव है, वहां-वहां ये बिग बद्रर सुर्खियों का स्काॅप खोज लेता है। मान न मान मैं तेरा मेहमान की तरह बातचीत के मेज पर बैठने को हमेशा तैयार रहता है। शांति के क्षेत्र में पुरस्कार मिलेगा या नहीं, ये तो नोबेल फाउंडेशन तय करेगी, लेकिन पिछले कुछ महीनों में ट्रंप  ने शांति से अधिक अशांति वाली बातें ज्यादा की हैं। कोरोना को लेकर चीन के साथ चल रही उनकी जुबानी जंग जाहिर है। दिन में जितनी बार वह आइना देखते हैं, उतनी बार अमेरिका में कोरोना फैलाना का चीन को जिम्मेदार

हिंदी का भी हो निजीकरण

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हर भाषा की अपनी खूबी होती है। उन खूबियों पर हमें इतराना चाहिये। जब अंग्रेजी वाले इतराते हैं तो भला हिंदी वाले क्यों नहीं इतरा सकते? जिस भाषा में खाते, पीते, सोते और गाली तक देते हैं, फिर उसको लेकर हीनभावना क्यों पाले? पर सच्चाई यह भी है कि अंग्रेजी के सामने आते ही हिंदी लड़खड़ाने सी लगती है। इस बात से वे लोग असहमत हो सकते हैं, जिन्हें अंग्रेजी आती है पर वे हिंदी के पैरोकार हैं। दरअसल, हिंदी और अंग्रेजी के बीच हमने प्रतिस्पर्धा का रिश्ता गढ़ दिया है। इसलिए ईर्ष्या, जलन और भेदभाव की बीमारी दिमाग में घर कर गई  है। इसका इलाज खोजने के लिए हमें डाॅक्टर क्षमा करना चिकित्सक खोजने होंगे।  मेरा ख्याल है कि निजीकरण के दौर में हिंदी का भी निजीकरण कर देना चाहिये। निजी स्कूलों, संस्थानों और दफ्तरों में इसको तवज्जों देने पर और काम करने की जरूरत है। निजी जिंदगी में भी जगह दें। बच्चों के  अंग्रेजी उन्मुख होने के दौरान इस बात का ख्याल रखें कि वह हिंदी विमुख न हो जाएं। केंद्र और राज्य सरकार के कार्यालय हिंदी में कामों को प्राथमिकता दें। हिंदी  के सरकारीकरण  में जो व्यवहारिक त्रुटियां हैं, उनको दूर करें। बोल

मत बोल कि बाॅलीवुड में लब आजाद नहीं!

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मीडिया का सबसे सशक्त माध्यम है सिनेमा। नायक और महानायक जैसे शब्द यहां गढ़े जाते हैं। समाज को दर्पण दिखाने वाले सिने जगत से जुड़े लोगों के लब बोलने के लिए आजाद नहीं हैं। इनकी अभिव्यक्ति हितों में कैद है। बात देश की हो या बाॅलीवुड की। किसी भी कंट्रोवर्सी  पर बोलने से ये बचते हैं। यह सिनेमा के विडंबना ही है कि सही को सही और गलत को गलत हमारे ये कथित नायक और महानायक नहीं कह पाते। इनकी अपनी मजबूरियां हैं। लेकिन बाद में कंट्रोवर्सी पर फिल्म बनाने से भी नहीं चूकते। सवाल है कि समाज की बुराईयों पर प्रहार करने वाले कथित नायकों की क्या समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है? कंट्रोवर्सी चाहिये पर पैसे के लिए ऐसा नहीं है कि फिल्मी सितारों को कंट्रोवर्सी पसंद नहीं है। ये तो कंट्रोवर्सी खड़ी करने के लिए जाने जाते हैं। कुछ तो ऐसे हैं कि चर्चा में बने रहने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। कंट्रोवर्सी से फिल्मों और अदाकारों को फायदा पहुंचता है। इसलिए निर्माता चाहते हैं कि थोड़ी बहुत तो ये होनी ही चाहिये। वह फिल्म के कथानक को लेकर हो, किसी संवाद या फिर सीन को लेकर। फिल्म की रिलीज से पहले कंट्रोवर्सी खड़ी हो जात

चल गया पता रसौड़े में कौन था?

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चारों ओर शोर मचने के बाद आखिरकार पता चल ही गया है कि रसौड़े में कौन था? घबराने वाली बात नहीं है, रसौड़े में बिनोद नहीं था। बिनोद को खोजने में भी लोग कम मशक्कत नहीं कर रहे। इन दिनों रसोई में गतिविधि बढी़ हुई हैं। चीनी और चाय की पत्ती का डिब्बा तेजी से खाली हो रहा है। मिर्च-मसालों की उम्र घट गई है।  तीन पहर का खाना और दो वक्त की चाय के अलावा भी किचिन में बहुत सारे काम होते हैं। आपको ही नहीं किचिन को भी पता चल चुका है कि उसके अंगने में घुसपैठ हो गई है। सब्जी वाले भैया और किराना वाले अंकल भी रसौड़े में परिवर्तन से वाकिफ हैं। इन तमाम गतिविधियों का असर घर के अर्थशास्त्र पर देखा जा रहा है। जब से उन्होंने रसौड़े में कदम रखा है रोमांस की खुशबू परमानेंट सी हो गई है। मानों कोई मुराद पूरी हो गई हो। मन में मयूर डांस पर चांस मार रहा है। खुद से एक गिलास पानी भी न लेने वाले जब पूछते हैं कि 'तुम भी चाय लोगी क्या' सुनकर मन मंत्रमुग्ध हो जाता है। रिश्ते में अदरक और तुलसी की खुशबू घुल जाती है। खाना बनाने में भी वे कभी-कभार हाथ आजमाते हैं। सब्जी छौंकने के साथ दोनों इधर-उधर की बातें भी छौंक लेते हैं। कब

काश! जिंदगी बहुविकल्पीय हो जाए

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  कई बार ऐसा होता है कि जब कोई समस्या या चुनौती आती है तो उससे पार पाने का रास्ता नजर नहीं आता। चारों ओर अंधेरा दिखाई देने लगता है। विकल्प ढूंढने लगते हैं। सच में अगर हमारे पास विकल्प है तो फिर चिंता करने की कोई बात नहीं है। हताशा नहीं घेरेगी। विकल्पों की खास बात यह है कि ये हमें दिखाई तभी देते हैं, जब हम किसी परेशानी में होते हैं। विकल्प जिंदगी में तरक्की की नई खिड़की खोल सकते हैं। जिससे बाहर झांकने पर आपकी परेशानी दूर और जिंदगी खूबसूरत बन सकती है। इसलिए जिंदगी बहुविकल्पीय होने में कोई बुराई नहीं है। मेरा पहली बार विकल्प शब्द से सामना बहुविकल्पीय परीक्षा में हुआ था। मल्टीपल च्वाइस क्वेशचन मैथेड जब से परीक्षाओं में आया है तो प्रतिस्पर्धा का स्वरूप ही बदल गया है। सब्जेक्टिव परीक्षा देने में परीक्षार्थी को इतना लिखना पड़ता था कि उसे लिखते-लिखते लव होने की जगह लकवा मारने की संभावना रहती थी। कमर दर्द करने लगती थी। हाथ दुखने लगते थे। कुछ लिखाड़ बी, सी और डी काॅपी तक भर देते थे। पता नहीं वे किस मिट्टी के बने थे। रिजल्ट आने से पहले तक ऐसे धुरंधरों के टाॅप करने की संभावना से देखा जाता था।  चारों

हे शिक्षकों तुम धन्य हो!

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शिक्षक देश के तारणहार हैं! सरकार ने इनको बहुमुखी प्रतिभा का धनी मान रखा है। राशन बंटवाने से लेकर, बैंक खाता का आधार नंबर से टांका भिड़वाने का काम इनको सौंपा हुआ है। स्कूल में सजा देने पर तो करीब-करीब प्रतिबंध सा है, लेकिन सड़क पर चालान काटने की इजाजत है। कोविड काल में गुरूजी ने रिक्शा में बैठकर जन गण को जागरूक किया। कंटेनमेंट जोन में घर-घर जाकर राशन पकड़ाया। संक्रमित भी हुए। सरकारों के पास शिक्षक रूपी ऐसी चाबी है, जिससे वह किसी भी योजना का ताला खोल सकती हैं। पढ़ने-पढ़ाने का काम तो चलता रहेगा। ऐसे शिक्षक पाकर सच में हम धन्य हैं। फैट सैलरी पर गिद्द दृष्टि स्कूल-काॅलेज की नौकरी 5-6 घंटे की तो है। फैट सैलरी है। मास्टर जी और मास्टराइन मौज काट रहे हैं। ऐसा सोच-सोचकर लोग दुबले हुए जा रहे हैं। काम लेने वालों और लोन देने वालों की शिक्षकों पर गिद्द दृष्टि है। आदेश की धौंस जमाकर कोई भी काम करा सकते हैं। अब पढ़ाई पर आते हैं। पप्पू पास न हो तो सबके चप्पू शिक्षक पर ही  चलते हैं। आखिर फैट सैलरी जो है। रिजल्ट बंपर आए तो यह सरकार की योजनाएं और अथक प्रयास का नतीजा है। श्रेय की होड़ में शिक्षक का नंबर आखिर में