हिंदी का भी हो निजीकरण
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हर भाषा की अपनी खूबी होती है। उन खूबियों पर हमें इतराना चाहिये। जब अंग्रेजी वाले इतराते हैं तो भला हिंदी वाले क्यों नहीं इतरा सकते? जिस भाषा में खाते, पीते, सोते और गाली तक देते हैं, फिर उसको लेकर हीनभावना क्यों पाले? पर सच्चाई यह भी है कि अंग्रेजी के सामने आते ही हिंदी लड़खड़ाने सी लगती है। इस बात से वे लोग असहमत हो सकते हैं, जिन्हें अंग्रेजी आती है पर वे हिंदी के पैरोकार हैं। दरअसल, हिंदी और अंग्रेजी के बीच हमने प्रतिस्पर्धा का रिश्ता गढ़ दिया है। इसलिए ईर्ष्या, जलन और भेदभाव की बीमारी दिमाग में घर कर गई है। इसका इलाज खोजने के लिए हमें डाॅक्टर क्षमा करना चिकित्सक खोजने होंगे।
मेरा ख्याल है कि निजीकरण के दौर में हिंदी का भी निजीकरण कर देना चाहिये। निजी स्कूलों, संस्थानों और दफ्तरों में इसको तवज्जों देने पर और काम करने की जरूरत है। निजी जिंदगी में भी जगह दें। बच्चों के अंग्रेजी उन्मुख होने के दौरान इस बात का ख्याल रखें कि वह हिंदी विमुख न हो जाएं। केंद्र और राज्य सरकार के कार्यालय हिंदी में कामों को प्राथमिकता दें। हिंदी के सरकारीकरण में जो व्यवहारिक त्रुटियां हैं, उनको दूर करें। बोलचाल की भाषा में दिक्कत नहीं है, लेकिन बात लिखित हिंदी की आती है तो इसकी क्लिष्टता अंग्रेजी से भी कहीं कठिन है। प्रतियोगी परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों की भाषा में हिंदी के साथ भेदभाव है। प्रश्न के तथ्य या भाषा में त्रुटि होने पर अंग्रेजी भाषा का प्रश्न ही सही माना जाएगा। यह बात कचोटती है। दूसरी सच्चाई यह भी है कि हिंदी की क्लिष्टता को दूर करने के लिए सवालों का अंग्रेजी अनुवाद पढ़कर बात एकदम दिमाग में उतर जाती है। उच्च शिक्षा की सबसे बड़ी संस्था यूजीसी का नेट देने वाले हिंदी भाषा के परीक्षार्थियों के दिल से पूछिये, कई के जेआरएफ क्वालीफाई होने से इसलिए रह जाता है कि कुछ प्रश्नों की गूढ़ भाषा उनके सिर के ऊपर से उतर गई। जबकि उत्तर उन्हें आते थे। इसलिए परीक्षार्थी अब प्रश्न समझ में न आने पर अंग्रेजी अनुवाद देखने के अभ्यस्त हो गए हैं।
हिंदी तो फिर भी सम्मानजनक स्थिति में है। सोचिए संस्कृत के साथ हमने क्या किया? विश्वविद्यलयों, काॅलेजों और बड़ी-बड़ी शैक्षिक संस्थाओं के ध्येय वाक्य संस्कृत में मिलेंगे। हालत सब जानते हैं। संस्कृत स्लोगन और श्लोक से बाहर नहीं निकल पाई। नई शिक्षा नीति में मातृ भाषा के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं पर जोर दिए जाने की बात कही है। एक उम्मीद तो कर ही सकते हैं।
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टिप्पणियाँ
बहुत खूब कहा।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंसत्य।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंGood
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंहमेशा की तरह लाजवाब।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद डॉक्टर साहब।
हटाएंअपनी मातृ भाषा पर गर्व होना ही चाहिए इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है। वास्तव में कोई भी भाषा पूर्ण रूप से विश्वव्यापी नहीं है। हरेक भाषा के अपने गुण और अवगुण होते है।
जवाब देंहटाएंसही कहा मित्र।
हटाएंराष्ट्रभाषा की दशा एवं दिशा का बेहतरीन समसामयिक विश्लेषण,
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर।
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