कश्मीर यात्रा (किस्त तीन)
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पहलगाम का मिनी स्विटज़रलैंड। |
जब से अखबार की नौकरी छोड़ी है रात दस बजे सोना और सुबह पांच बजे उठने की आदत बन गई है। छुट्टी के दिन छोड़कर। आंख खुलने से पहले कानों में अजान की आवाज आई। उठा और पानी पीने के बाद फ्रेश हुआ। सात बजने का इंतजार किया, क्योंकि पास का रेस्टोरेंट तभी खुलता। तब तक हम तैयार हो गए। चाय बोलने के लिए मैं बाहर गया। आर्डर कर डल के किनारे पहुंचा तो देखा मॉर्निंग वॉकर्स की भीड़ थी। डल का किनारा पर्यटकों के घूमने के अलावा लोकल के टहलने के काम भी आता है। साढ़े सात बजे टैक्सी आने वाली थी। गेस्ट हाउस केयरटेकर फैयाज ने इंतजाम किया था। तीन हजार में। मैं जल्द ही कमरे पर लौट आया।
तब तक हमारे कमरा नंबर 103 में चाय और पराठे पहुंच गए। नाश्ता नोश फरमा ही रहे थे दरवाजे पर ठकठक हुई। सर गुड मॉर्निंग। टैक्सी आ गई है। एक नौजवान सामने खड़ा था। दस मिनट में आते हैं सुनकर उसने कहा ओके सर। मैं नीचे ही हूं। आप आ जाएगा। आज हमें पहलगाम जाना था। थोड़ी देर में ठक-ठक करते हुए हम नीचे उतरे। आवाज इसलिए हो रही थी क्योंकि जीना लकड़ी का था। आने-जाने की आहट प्राकृतिक सी लगती थी। जैसे लकड़हारा कुल्हाड़ी चला रहा हो। टैक्सी में बैठते ही पता चला बेटा का चश्मा एयरपोर्ट से लौटते वक्त टैक्सी में ही भूल गए। टैक्सी मालिक अल्ताफ जो चालक भी था से दुआ सलाम हुई। कुछ देर वह अपनी ड्राइविंग में तल्लीन रहा। फिर बातचीत होने लगी तो वह खुल गया। इस तरह श्रीनगर के बारे में बात होने लगी।
ट्रैफिक अधिक नहीं था। 20 मिनट में श्रीनगर पार कर नेशनल हाईवे 44 पर पहुंच गए। रास्ते में कई जगह आर्मी दिखी। आमतौर पर इतनी ज्यादा नहीं होती लेकिन गृह मंत्री अमित शाह कश्मीर के तीन दिन के दौरे पर थे। धारा 370 हटने के बाद। राजौरी और बारामूला में उन्हें रैली को संबोधित करना था। इसलिए मुस्तैदी ज्यादा थी. हाइवे के दोनों ओर खाली खेत थे। अल्ताफ ने बताया यहां केसर के खेती होती है। यह वह इतराया भी कि कश्मीर में सबसे अच्छे केसर की पैदाइश की जाती है। रास्ते में कुछ धान के भी खेत दिखे। कश्मीर में सेब, केसर और धान की खेती मुख्य है।
एक सेब के बाग में हम कुछ देर के लिए ठहरे। फोटो खींचे, जूश पीया और अचार भी चखा। जूस पीकर ताजगी महसूस हुई। हाइवे पर करीब 30 किमी चलकर नीचे उतर गए। अनंतनाग जिलाशुरू हो चुका था। यहां नाग का मतलब एक तरह का पानी है जो प्रचुर मात्रा में निकलता है इसलिए जिले का नाम अनंतनाग पड़ा। एक गांव से गुजरे तो कश्मीरी पोशाक देखने को मिली। बिल्कुल वैसी जैसी हैदर फिल्म में शाहिद कपूर ने पहनी थी। कुछ दूर रास्ता संकरा और टेडा मेडा था। जब अनंतनाग शहर में पहुंचे तो वह बिल्कुल श्रीनगर जैसा लगा। अनंतनाग पार करके पहाड़ी एरिया में दाखिल हो गए। दोनों और ऊँचे पहाड़। उन पर तने हरे पेड़। घोर नीला आसमान। दो घंटे के सफर के बाद एक झरने को फॉलो करते हुए आखिरकार पहलगाम में दाखिल हो गए। घुसते ही सेल्फी प्वाइंट बना है। मुसाफिर वहां रुकते हैं। सेल्फी लेते हैं। हमने भी ली। साइड में झरना है जो ज्यादा क्रेजी होते हैं वह झरने के पास जाकर चिल्लाते हैं। बीस मिनट के बाद पहलगाम पहुंच गए। मेन बाजार में ढाबे और रेस्टोरेंट थे। टूरिस्ट गाड़ियों की लाइन लगी थी। टूरिस्ट गाड़ियों में शेवरले की टावेरा की यहां भरमार है। अच्छा माइलेज और मजबूती के कारण कश्मीर में ये खूब बिकी। निजी गाड़ी में मारूति ऑल्टो पहली पसंद है।
एक पंजाबी ढाबे पर चाय और पराठा पेलने के बाद घुड़सवारी के लिए घोड़े की तलाश शुरू की। पहलगाम टूरिज्म अथॉरिटी का एक टूटा फूटा बोर्ड दिख, जिसे पर्यटकों ने घेर रखा था। उस पर प्वाइंट के हिसाब से पैसे लिखे थे। छह प्वाइंट बारह हजार में। बोर्ड पर लिखे दाम का मुसाफिरों के लिये कोई मतलब नहीं है। बस यह घोड़ों वालों की सहूलियत के लिए लगा रखा है। मोलभाव के लिये। दाम को लेकर कुछ देर चिकचिक हुई। दस मिनट बाद छह हजार में बात बनी। दो घोड़े पर तीन सवारी। बेटा अलग घोड़े पर जाने को तैयार नहीं था। हमें डील महंगी लगी। पर कर भी क्या सकते थे? तीनों पहली बार घोड़े पर बैठे। मैं तो शादी में भी अश्व जाति पर नहीं चढ़ा। अब एकसाथ सवारी कर रहे थे।
हिलने ढुलने से डर लग रहा था। कुछ देर में हम हिलने के अभ्यस्थ हो गए। बेटा पत्नी के साथ था। दोनों किसी तरह एडजस्ट कर रहे थे। उनको लेकर मैं डरा हुआ था। घोड़ों की खास बात है कि जहां इंसान पैर रखने से भी डरता है वे वहां मटकते हुए चल सकते हैं। रास्ता पथरीला और गीला होने से भी उन्हें फर्क नहीं पड़ता। जिस रास्ते पर हम निकले थे वो उनका जाना पहचाना था। यह तसल्ली की बात थी। आगे एडवेंचर हमारा इंतजार कर रहा था। घोड़ों की लगाम हमारे हाथों में थी जरूर पर बागडोर वसीम संभाल रहा था। एक घोड़े की रस्सी पकड़कर वह आगे-आगे चल रहा था। मैं दूसरे पर पीछे था। घोड़े एक-दूसरे को फॉलो कर रहे थे। वसीम बीए की पढ़ाई कर रहा है। दूसरा साल है। कॉलेज जाता है। उसका यह काम पार्ट टाइम है। सर पंद्रह दिन में आज नंबर लगा। वसीम ने बताया। एक सप्ताह से मैं यहां पर अपना नंबर आने का इंतजार कर रहा हूं। जिनसे डील हुई थी वह मेरा भाई है। महीने में दो-तीन बार ही नंबर आता है। घोड़ों की टाप के बीच में हम बतिया रहे थे। पीछे वाला घोड़ा रुकता तो वह मुड़कर आता। सड़क का रास्ता पूरा करने के बाद पहाड़ की चढ़ाई शुरू हुई। दोनों तरफ याड के लंबे-लंबे पेड खड़े थे। एकदम सन्नाटा। हरियाली के बीच सिर्फ हमारी आवाज थी।
अगले कुछ घंटे हम पहाड़ के दुर्गम रास्तों पर बिताने वाले थे। ऊबड़ खाबड रास्ते जब शुरू हुए तो एडवेंचर का फील आया। पास में गहराई न हो तो घोड़ों पर इतना भरोसा हो गया था कि अपने डबलबेड से गिर सकते हैं लेकिन इन पर से लुढ़कने वाले नहीं हैं। वसीम बीच-बीच में लगाम खींचने को कहता। जिस तरफ जाना होता कभी-कभी उस तरफ लगाम को मैं स्क्रॉल कर देता। यह क्रिया मुझमें घुड़सवारी का आत्मविश्वास पैदा कर रही थी। करीब चालीस मिनट के बाद हमारा पहला ठहराव आ गया। पेड़ों के दरमियान एक खाली जगह। इधर उधर पत्थर बिखरे हुए थे। एक छोटा सा झरना रेंग रहा था। एकखोखे पर कुछ खाने-पीने का सामान टंगा था। घोड़ों से उतरकर हमने कमर सीधी की। फोटो खींचे। फिर बैठ गए। खोखे से पधारे एक युवक ने पूछा। सर चाय या कावा कुछ लोगे। चाय की मैंने हां भर दी। प्रतीक्षा कर रहे दूसरे युवक ने अपनी कपड़े की गठरी खोल दी। बहन जी शॉल, स्टॉल ले लो। प्योर पश्मीना है। बौनी हो जाएगी। हमने दिलचस्पी नहीं दिखाई। चाय खत्म कर चल दिए। अब ऊंचाई और बढ़ने वाली थी। गड्ढे और पत्थरों के बीच से जाना था। रोमांच के बीच कभी-कभी डर भी लगता। हमारे पीछे आ रहे मुसाफिरों की टोली आगे निकल गई। उनके घोड़े तेज और बेढंगे चल रहे थे। देखकर दिलाशा मिला कि हम तो धीरे धीरे चल रहे हैं। गिरने वाले नहीं हैं। घोड़े भी थकने लगे थे। चलते-चलते वे घास खाने लगते, पानी पीते और गोबर भी करते।
आधा घंटे बाद दूसरा पड़ाव आ गया। पानी का झरना शोर मचा रहा था। पर्यटक मौजमस्ती कर रहे थे। पत्थर पर चढ़कर सेल्फी ले रहे थे। पहले की तरह एक सामान की खोखानुमा दुकान थी। कपड़े वाले भी थे। आप जिस प्वाइंट पर जाइए ये दोनों मिलेंगे ही। दो विदेशी पर्यटक हॉफ निक्कर में चहलकदमी कर रहे थे। एक झरना पार कर दूसरी ओर बड़े पत्थर पर जा खड़ा हुआ। दूसरे ने उसकी तस्वीर खींची। उनको कॉपी करने के लिए एक पर्यटक भी उस ओर बढ़ा। पानी के पास जाकर हमने भी कुछ फोटो उठाए। झरना गहराई में था इसलिए ज्यादा अंदर नहीं गए। चढ़ाई की सफर खत्म होने वाला था। घोड़ों ने जब नीचा आना शुरू किया तो पता चला उतरना ज्यादा मुश्किल है। चढ़ते वक्त घोड़े पर संतुलन बनाना आसान है। उतरने के दौरान अपने शरीर के भार को न केवल संभालना होता है बल्कि यह कोशिश भी करनी होती है कि वजन पीछे की ओर रहे। ज्यादा गहराई देखकर हम पहले ही उतर गए। कुछ फलांग चलने के बाद मिनी स्विटजरलैंड पहुंच गए। सुनकर मैं भी चौंका। पर इस नाम से यहां एक प्वाइंट है। इसके जरिये पर्यटकों को रिझाते हैं। मिनी स्विटजरलैंड में घुसने के लिए टिकट लेना पड़ा।
नजर घुमाई तो चौड़ा मैदान। घास से भरा हुआ। एक तरफ उंचा और दूसरी ओर नीचा। जिप लाइन पर वीडियो बनाते मुसाफिर। यह दृश्य मैदान के लोगों के लिए स्विटजरलैंड से कम नहीं है। बशर्ते उन्होंने असली स्विटजरलैंड की सैर न की हो। धूप तेज थी। पहाड़ों पर धूप कांटे की तरह चुभती है। इससे बचाव जरूरी है। नहीं तो टेनिंग और स्किन बर्न तय है। हम उंचाई पर छांव की तलाश में चल दिए। छांव का एक टुकड़ खोजकर वहीं बैठ गए। करीब आधा घंटे तक निहारते रहे। जब मन भर सा गया तो दूसरी ओर जहां हमारे घोड़े थे, चल दिए। यहां घोड़ों और मुसाफिरों की भीड़ थी। स्कूल की यूनिफॉर्म में भी काफी बच्चे थे। दो-तीन ने एलेक्सा अपने बैग पर टांग रखा था। जिसमें गाना बज रहा था। उतरते का सिलसिला शुरू हो चुका था। गहराई और ऊटपटांग रास्ते ने थोड़ी मुश्किल पैदा की। घोड़े अपनी चाल चलते रहे। अभी दो प्वाइंट देखने बाकी थी।
थकान हम पर सवार हो चुकी थी। बेटे को ज्यादा असुविधा हो रही थी। एक जगह घोड़ा इतना डगमगाया कि पत्नी और बेटे का संतुलन बिगड़ गया। फिर वो हुआ जिसका डर था। दोनों धड़ाम से गिर गए। मैं सन्न रह गया। मदद के लिए भी कैसे दौड़ता। खुद घोड़े पर जो था। वसीम दौड़ा। चोट ज्यादा तो नहीं लगी। कहीं हड्डी... ख्याल ने टेंशन में ला दिया। दोनों ने कपड़े साफ किए। खैर, गनीमत रही कि किसी को चोट नहीं लगी। कुछ देर के लिए हम गुमशुम हो गए। मैं भी घोड़े से उतर गया। फिर तीनों पैदल ही चलने लगे। घोड़े आगे और हम पीछे। बेटा अब घोड़े पर बैठने के लिए तैयार नहीं था। काफी मनाने के बाद तय हुआ कि सपाट रास्ते पर बैठ जाएंगे। इस तरह कई बार उतरे और चढ़े। घुड़सवारी के साथ ट्रैकिंग भी हो गई। जूते और कपड़े मिट्टी में सन चुके थे। अब हम बेस का इंतजार बेसब्री से कर रहे थे। वसीम से बार-बार पूछते और कितने दूर। दो प्वाइंट हमने जल्दी से पूरे किए। पक्की सड़क आते ही हम घोड़े पर बैठे। अब चेहरे पर इत्मिनान था। बेटा और पत्नी गिरने के बावजूद खुश थे। मैं ही टेंशन लिए जा रहा था। बेस पहुंचने पर विजयी मुस्कान हमारे चेहरों पर थी। घोड़ों से उतरकर झरने की ओर बढ़े। जूते और कपड़े साफ करने थे।
जारी...
-विपिन धनकड़
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टिप्पणियाँ
Beautiful description of kashmir visit! I would certainly like to go!! We feel as if we are there only while reading this article!
जवाब देंहटाएंThank you.
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