विंटर ब्रेक

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सर्दी अकेली नहीं आती। अपने साथ विंटर ब्रेक, कोहरा, गलन भी लाती है। पहाड़ों पर बर्फ और मैदान पर शीतलहर का राज चलता है। एक चीज और लाती है सर्दी अपने साथ। न्यू ईयर। नये साल के जोश में चूर हम ठंड को ओढ़ते और बिछाते हैं। होटल, रेस्टोरेंट और सड़क पर जश्न मनाते हुए सर्दी का स्वागत करते हैं। सड़क पर ही बहुत से लोगों को कड़कड़ाती सर्दी सीमित कपड़ों और खुले आसमान में गुजारनी होती है।  चाय, काॅफी पीते और तापते हुए बोलते हैं ऐसी नहीं पड़ी पहले कभी। सर्दी का यह तकियाकलाम अखबारों में रोज रिकाॅर्ड बनाती और तोड़ती हेडलाइन को देखकर दम भरता है। मुझे विंटर ब्रेक का इंतजार औरों की तरह नहीं रहता। मैं पहाड़ों की जगह अपनी रजाई में घूम लेता हूं। मनाली, नैनीताल और मसूरी में गाड़ियों की कतार मुझे अपनी ओर नहीं खींच पाती। क्योंकि पत्नी और बेटे की छुट्टी रहती है और बाहर हम कम ही जाते हैं इसलिए मेरे ड्यूटी कुछ सख्त हो जाती है। रूटीन बेपटरी होने की शुरुआत अलार्म नहीं बजने से होती है। देर से सोना और सुबह जब मन करे उठना यह एैब इंसान को बर्बाद कर सकता है। दुनिया से काट देता है।  सर्दी बच्चों को बेकाबू होने की छूट देती है। नहान

गधा नहीं मुर्गा बनने का अभ्यास करो!


बचपन में कभी आप मुर्गा बने हैं? जो पहाड़े याद करने में कच्चे थे वो तो जरूर बने होंगे। मुर्गा बनने का अवसर नहीं मिला तो दोनों हाथ ऊपर किए होंगे। हिंदी भाषी स्कूलों में ये अघोषित सजा दी जाती रही हैं। दरअसल, मुर्गा एक ऐसा जानवर है, इसकी मुद्रा धारण करने के लिए इंसान को विवश किया जाता है। मुर्गासन स्कूल से लेकर काॅलेज तक पीछा नहीं छोड़ता। इंसान को मुर्गा बनने की खोज प्राइमरी स्कूलों में हुई है। अब इस परंपरा को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी मेडिकल और इंजीनियरिंग काॅलेजों के सीनियर्स के कंधों पर है। कायदे और कानून की भाषा में जिसको रैगिंग कहते हैं। कैंपस में यह निषेध है। इसके बिना आप डाॅक्टर तो बन सकते हैं, लेकिन सीनियर हरगिज नहीं। मुर्गा बनने वालों का चिकन की तरफ रूझान देखा गया है। ये नफरत है या बदले की भावना यह तो पता नहीं पर दोनों काम बदस्तूर जारी हैं। 



हाल में यूपी के एक मेडिकल काॅलेज में छात्रों को मुर्गा बनाने की खबर फड़फड़ाती हुई आई। रैगिंग की जांच पड़ताल की जा रही है। मेडिकल में दाखिले के लिए नौजवान दिन रात एक कर देते हैं। वह गधे की तरह पढ़ाई को ढोते हैं और परिजन उनके पीछे तिक-तिक करते रहते हैं। दोनों इस बात से बेखबर रहते हैं कि प्रैक्टिस गधे की नहीं मुर्गा बनने की करनी है। कुछ तो पढ़ाई के चक्कर में फिजिकल एक्टिविटी पूरी तरह इग्नोर मार देते हैं। बस हर वक्त किताबों में घुसे रहते हैं। अब स्टेमिना पन्नों से तो मिलने से रहा। हायर स्टडी के लिए जब कैंपस पहुंचते हैं तो तब ज्ञात होता है की  मुर्गा भी बनना है। वैसे सीनियर्स को आपके नंबर से कोई मतलब नहीं है। आप एलईडी में पढ़े या लालटेन में। उन्हें फर्क नहीं पड़ता। उन्हें तो बस अपना एंटरटेनमेंट चाहिये। इसके लिए वह कुछ भी करेंगे। गनीमत इस बात की है कि फ्रेशर्स से अपना माइंड फ्रेश करने के लिए शिक्षण संस्थानों में क्रिएटिव आइडिया का क्राइसिस है। अगर इसमें भी इनोवेशन होने लगा तो लेने के देने पड़ जाएंगे और पकड़ने और निगरानी करने वालों को भी पता नहीं चलेगा कि रैगिंग हो गई। मुर्गा बनने के मामले में हिंदी भाषी होनहार बाजी मार ले जाते हैं। मुर्गा बनने की फरमाइश होते ही मानो जैसे उनकी मन की मुराद पूरी हो गई हो। मास्टरजी द्वारा बनाए गए मुर्गे के दिन तुरंत याद आ जाते हैं। आखिर वो एक्सपीरियंस कहीं तो काम आया। वह मुर्गा बनने में हिचकते नहीं। आत्मविश्वास के साथ दोनों पैर पर संतुलन साधकर चुटकी बजाते ही शुरू हो जाते हैं। बारी-बारी से पैर पर वजन केंद्रित कर मुर्गासन अवधि को सामने वाले की संतुष्टि तक पहुंचाना उन्हें अच्छे से आता है। अंग्रेजी भाषी मेधावियों के लिए यह डिस्कसटिंग है। फिर भी बनना तो पड़ता है। आखिर सीनियर्स के सम्मान का सवाल है। तब वह सोचते हैं काश! हम भी हिंदी मीडियम में पढ़ लिये होते।




जन्मजात भेदभाव 

मुर्गा बनने में लड़कों के साथ भेदभाव जन्मजात है। यहां लैंगिक असमानता साफतौर पर देखी जा सकती है। लड़कियों के मुर्गा या मुर्गी बनने की खबर सुनने को नहीं मिलती। यह अत्याचार सिर्फ लड़कों को नसीब में है। दरअसल, लड़कियां मुर्गा बनती नहीं बनाती हैं।


चलते-चलते

जिसने मुर्गा बनाने वाले के मन को पढ़ लिया समझो उसका ज्ञान पूरा हो गया। पढाई का क्या, पास तो रटकर भी हो जाते हैं। मनन और मंथन करने वाले मुर्गा बनते नहीं, बनाते हैं। 


(व्यंग्य पसंद आया तो प्रतिक्रिया देने का कष्ट करें )


- विपिन धनकड़ 


#Ragging#Students#Punishment#Campus

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