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जनवरी, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विंटर ब्रेक

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सर्दी अकेली नहीं आती। अपने साथ विंटर ब्रेक, कोहरा, गलन भी लाती है। पहाड़ों पर बर्फ और मैदान पर शीतलहर का राज चलता है। एक चीज और लाती है सर्दी अपने साथ। न्यू ईयर। नये साल के जोश में चूर हम ठंड को ओढ़ते और बिछाते हैं। होटल, रेस्टोरेंट और सड़क पर जश्न मनाते हुए सर्दी का स्वागत करते हैं। सड़क पर ही बहुत से लोगों को कड़कड़ाती सर्दी सीमित कपड़ों और खुले आसमान में गुजारनी होती है।  चाय, काॅफी पीते और तापते हुए बोलते हैं ऐसी नहीं पड़ी पहले कभी। सर्दी का यह तकियाकलाम अखबारों में रोज रिकाॅर्ड बनाती और तोड़ती हेडलाइन को देखकर दम भरता है। मुझे विंटर ब्रेक का इंतजार औरों की तरह नहीं रहता। मैं पहाड़ों की जगह अपनी रजाई में घूम लेता हूं। मनाली, नैनीताल और मसूरी में गाड़ियों की कतार मुझे अपनी ओर नहीं खींच पाती। क्योंकि पत्नी और बेटे की छुट्टी रहती है और बाहर हम कम ही जाते हैं इसलिए मेरे ड्यूटी कुछ सख्त हो जाती है। रूटीन बेपटरी होने की शुरुआत अलार्म नहीं बजने से होती है। देर से सोना और सुबह जब मन करे उठना यह एैब इंसान को बर्बाद कर सकता है। दुनिया से काट देता है।  सर्दी बच्चों को बेकाबू होने की छूट देती है। नहान

आन पर गिरा आंसू, बना चिंगारी

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किसान आंदोलन के अलग-अलग रंग हम टीवी, समाचार पत्रों और सोशल मीडिया पर देख रहे हैं। यकीन मानिए  तयशुदा कार्यक्रम के तहत जो जैसा रंग दिखाना चाहता है, हम वैसा ही देख रहे हैं। फिर उस पर एक राय कायम  साथ सोशल मीडिया पर उडेल देते हैं। इधर से उधर होने के लिए। पिछले कुछ दिनों से यही सब चल रहा है। आंदोलन में किसान नेता राकेश टिकैत के आंखों में आंसू आने के बाद उजड़ सा चुका गाजीपुर बाॅर्डर के आंदोलन में जोश और जज्बात का नया रंग आ गया है। यह कितना गहरा और असरदार होगा, यह तो समय बताएगा। फिलहाल चटक है। आंदोलन के इस टर्निंग प्वाइंट को देखने के लिए में भी गाजीपुर बाॅर्डर पहुंचा। कुछ रंग देखने के लिए।    फाइल फोटो। भाईसाहब आईडी दिखाओ  यूपी गेट से करीब दो किमी दूर वैशाली के सेक्टर-2 में मैं रहता हूं। बाॅर्डर पर जब आंदोलन ने जोर पकड़ा था तो एक बार देखने गया था। कुछ लिखने से पहले देखना चाहता था। बृहस्पतिवार शाम से देर रात तक हाईवोल्टे ज ड्रामा देखने के बाद एक बार और जाने की उत्सुकता हुई। सुबह 10 बजे पैदल गाजीपुर बाॅर्डर पहुंच गया। इस बहाने मॉर्निंग वॉक भी हो गई। मोबाइल घर पर छोड़ दिया था, क्योंकि बेटे की ऑनला

कलयुग के चार यक्ष प्रश्न

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एक ही सवाल का जवाब अगर आपको रोज देना पड़े तो कैसा लगेगा। जाहिर है मन में मोतीचूर के लड्डू तो नहीं फूटेंगे। बात उन सवालों की हो रही है, जिनके जवाब वैज्ञानिकों के पास भी नहीं हैं। न ही इन पर कोई खोज की जा सकती है। अगर  जुगाड़ करके कर भी ली तो सवाल बदलने वाले नहीं हैं। दरअसल, इन सवालों के चारों ओर हमारी जिंदगी परिक्रमा करती है। आपके पास जवाब नहीं है तो बस हां में हां मिला दीजिए, वो भी बिना झल्लाए। तभी आपके ग्रह और गृह में शांति स्थापित होगी। तो चलिये कलयुग के चार यक्ष प्रश्नों से रूबरू होते हैं।    क्या बनाउं? जिसने भी कहा है कि दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है वह अगर दिलरूबा द्वारा रोज पूछे जाने वाला सवाल 'आज खाने में क्या बनाउं' का भी जवाब दे देते तो बड़ा एहसान होता। इस सवाल का रोजाना जवाब देना दुनिया के किसी भी मर्द के बस की बात नहीं है। वो तो औरतों का जिगर है कि वह फिर भी रोज पूछ लेती है। वे न पूछते थकती हैं और न ही बनाते। ऑफिस की मीटिंग चल रही हो या मंच पर भाषण, 'क्या बनाउं' पूछने के लिए फोन कभी भी बज सकता है। नेताजी को भी जवाब देना आता है। वह श्रीमति जी को निराश नहीं क

डरावने दौर में नहीं हटे पीछे, बचाई जानें

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कोरोना से लड़ने के लिए देश में वैक्सीनेशन शुरू हो चुका है। उम्मीद कर सकते हैं कि महामारी के खात्मे की तरफ हमने कदम बढ़ा दिए हैं। एक वक्त था जब कोरोना से सब कुछ थम सा गया था। संक्रमण की दर और मौत के आंकड़े डर बढ़ाते ही जा रहे थे। लाॅकडाउन का वो मंजर देशवासियों के जहन से जाने वाला नहीं है। डाॅक्टर्स और मेडिकल स्टाॅफ ने इस दौर में जिंदगियां बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी। कुछ ने गंवाई भी। इस बीच एक अस्पताल ऐसा भी रहा, जहां यह महामारी इलाज रोक नहीं पाई। मुश्किल वक्त और पहाड़ जैसी चुनौती में मेरठ-रूड़की रोड स्थित आर्यवर्त हाॅस्पिटल के कोरोना वाॅरियर ने न जाने कितनी सांसों और तकलीफों को बचाया है। दिल्ली तक के मरीजों को अस्पताल ने मुश्किल दौर में संभाला। मरीज को देखते डॉक्टर मलय शर्मा। इलाज में नहीं आई कमी आर्यवर्त हाॅस्पिटल मेरठ से करीब 10 किमी दूर दौराला में स्थित है। मरीजों के लिए इस हाॅस्पिटल की उपस्थिति जंगल में मंगल जैसी है। अस्पताल के चारों ओर गन्ने और गेहूं की लहलहाती फसल मरीजों को प्रकृति के करीब होने का अहसास देती है। हाॅस्पिटल का आधुनिक और विशेषज्ञ इलाज पेट के रोगियों को पूरी तरह स

खत्म न हो जाए संबंधों का टाॅकटाइम!

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जो यह समझते हैं कि जंग तो सिर्फ बाॅर्डर पर लड़ी जाती है वह खुद को सही कर लें। जल, जमीन और आसमान के अलावा भी जंग के मैदान हैं। आजकल युद्ध मोबाइल पर भी लड़े जा रहे हैं या मोबाइल की वजह से लड़े जा रहे हैं। सिविल वाॅर और कोल्ड वाॅर तो मोबाइल को लेकर छिड़ी है। हम सब इसका हिस्सा हैं। मोबाइल के आने से पहले घरों में लैंडलाइन घनघनाते थे। घंटी हमारी बजती थी पता पड़ोसी तक को चल जाता था। करीब 20 साल पहले स्मार्टफोन का जन्म हुआ और अब यह जवान हो चुका है। यह उत्पात मचा रहा है। स्वभाव से ही मनचला है। कंपनियों ने इसको मनचला इसलिए बनाया है कि उनकी बाजार में चल सके। किसी भी खासियत पर यह ज्यादा दिनों तक टिकता ही नहीं। हर साल नये-नये वर्जन दिल चुराने के लिए बाजार में छोड़ दिए जाते हैं। मां-बाप की नजर औलाद पर रहती है और औलाद की मोबाइल पर। फोन के होने से जो समस्याएं खड़ी हुई हैं, वे भी कम नहीं हैं। मोबाइल की खोज इसलिए हुई कि आप किसी से भी कहीं भी कभी भी बात कर सकें। नजदीक लाने का यह उपकरण अब दूरियां पैदा करने का कारण भी बन रहा है।  फोन है के उठता नहीं, हम क्या करें वैसे तो लोग मोबाइल पर व्यस्त रहते हैं, लेकिन फोन न

सुन-सुन, सहनशीलता में बड़े-बड़े गुण

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हर कोई ताकतवर बनना चाहता है। कह सकते हैं कि असुरक्षा का बोध समाज को ताकत की ओर उन्मुख कर रहा है। शक्तिशाली बनने के लिए बोलियां लग रही हैं। बाहरी ताकत को पाने के लिए खरीद-फरोख्त चल रही है। और हम हैं कि अपने अंदर की ताकत महसूस ही नहीं करना चाहते। सहिष्णुता या सहनशीलता ऐसी ही एक ताकत है। इसको अपना लिया तो समझो नैया पार हो गई। हाल के दो मामले में सहनशीलता के अभ्यास ने अपनी ताकत का एहसास कराया है।  विपरीत परिस्थिति को बदला भारतीय क्रिकेट टीम ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर है। कंगारूओं की बाउंसी पिच बल्लेबाजों की कब्रगाह रही है। ज्यादातर टीम वहां हार दफ़न करके लौटती हैं। टेस्ट मैच में तो मेजबान के सामने विरोधी टीम नौसिखयां लगती हैं। नंबर वन पेस अटैक के सामने बैटिंग को लिटमस टेस्ट देना होता है। चार टेस्ट मैच की सीरीज में 1-1 की बराबरी पर तीसरे टेस्ट  मैच पर सबकी निगाह टिकी थी। भारत के बल्लेबाजों की सहनशीलता ने मैच को ड्रॉ करा दिया। पुछल्ले बल्लेबाजी क्रम में हनुमंत विहारी और रविचंद्रन अश्विन ने पिच पर ऐसे पैर जमाए कि ऑस्ट्रेलिया के गेंदबाजों की सांसें उखड़ गई, लेकिन वह दोनों में से किसी का भी विकेट नही

लाॅकडाउन में कमाया, बर्ड फ्लू में गंवाया

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महामारी अपने साथ जान और माल का संकट लेकर आती हैं। इस वक्त चिंता की बात यह है कि कोरोना के संकट से देश उभर भी नहीं पाया है कि बर्ड फ्लू ने पांच राज्यों में पैर पसार लिए हैं। केरल में इसे आपदा घोषित कर दिया गया है। राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश में लगातार पक्षियों के मरने की पुष्टि हो रही है। 12 राज्यों को सतर्क रहने को कहा गया है। पक्षियों के जान के दुश्मन बर्ड फ्लू ने पोल्ट्री उद्योग को तगड़ा झटका दिया है। ब्राॅयलर फार्मिंग करने वाले किसानों को लाखों रूपये का नुकसान हो चुका है। दाम धड़ाम होने से बाजार में खलबली मच गई है।  लाॅकडाउन में जिस काम ने किसानों को मुनाफा दिया, वह बर्ड फ्लू की चपेट में आकर बर्बादी की कगार पर पहुंच गया है।  जब कोरोना आया देश में 24 मार्च को लाॅकडाउन लगाया गया था। इस दौरान कोरोना संक्रमण की वजह को लेकर इतनी स्पष्टता नहीं थी। चिकन से कोरोना होने की अफवाह फैली तो मुर्गे और अंडे का बाजार ढह गया। हाल यह रहा कि 10 रूपये किलो में भी मुर्गे के खरीदार नहीं मिले। लेकिन कुछ समय बाद बाजार बदला। लाॅकडाउन में चिकन की कीमत 150 रूपये किलो तक पहुंची। इस बीच सात-आठ

जिंदगी एक जुमला है सुहाना

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जिंदगी का मतलब हर किसी के लिए अलग हो सकता है। कोई इसे शौक में खोजता है, किसी को यह सुकून में नजर आती है। किसी के लिए सफलता है तो किसी के लिए दौलत। उम्रभर भौतिक सुख जुटाने में अचानक याद आता है, यार हमने जिंदगी तो जी ही नहीं। बस दौड़ते रहे। यहां से वहां। इधर से उधर। दरअसल, जिंदगी का कोर्स आउट ऑफ सिलेबस है। बावजूद इसके ये समय-समय पर परीक्षा लेती रहती है। यूं तो कुतुबखाने किताबों से भरे पड़े हैं, लेकिन ऐसी जिल्द जो जिंदगी से रूबरू करा दे, मिलती ही नहीं। अनुभव के पन्ने के पलटने पर अहसास होता है, सांसों के साथ जो गुजर रही थी, वही तो थी जिंदगी। बस महसूस ही जरा देर से हुई। इस पर जब फोकस करने की फुर्सत हुई, तब चश्मे चढ़ चुके थे।  कल, आज और कल कल, आज और कल। तीनों जिंदगी से इस तरह जुड़े हैं, जैसे पेड़ से पत्ते, नदी से बहाव, पहाड़ से ऊंचाई। इनका ताल्लुक फितरत की तरह है। बदलता नहीं। कल में जिंदगी हमने कभी जी ही नहीं। पता नहीं किस-किस काम में उलझे थे। कहने को टाइम नहीं था। ठिकाने खोजने और कामयाबी की सीढ़ी चढ़ने में इतने व्यस्त थे कि पता ही नहीं चला कुछ फिसलता भी जा रहा है। छूटता जा रहा है। आज कुछ होश है तो