विंटर ब्रेक
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बेवजह के काम करने का कोई तर्क नहीं होता। बस मूड बना तो कर लिया। मनमर्जी का अपना तर्कशास्त्र है। घूमने, खाने, पीने और मस्ती के कामों की योजना अचानक ही बनती हैं। जिस काम से दिल बहल जाए, उसे कभी-कभार करने में कोई बुराई नहीं है। अचानक कनॉट प्लेस घूमने का ख्याल आया। दिनचर्या सुबह पांच बजे शुरू होती है। पत्नी और बच्चे को स्कूल भेजने के बाद छह घंटे खाली थे मेरे पास। इसमें चाहे जो कर लो। वेब सीरीज देखना, टीवी देखना, किताब पढ़ना, कुछ लिखना, नोट्स तैयार करना वैगराह। तय किया कि आज इनमें से कुछ भी नहीं किया जाएगा। घर को व्यवस्थित कर जल्दी से नहाया और नाश्ता कर घर से निकल लिया।
एक बार को मन बदला कि घर के पास के ही मॉल में कुछ समय बिताया जाए, लेकिन दिमाग में सीपी जाने का विचार पक्का हो चुका था। जर्नलिज्म की पढ़ाई के वक्त सीपी से रोज गुजरने की वजह से उसकी रौनक से एक रिश्ता जुड़ गया था। हालांकि इस रिश्ते में शिद्दत दो साल ही रही। सालों बाद उस एहसास से मिलने की योजना कुछ रोमांच पैदा कर रही थी। दिल्ली में सीपी की लोकेशन ऐसी है कि आप अंदर से आएं या बाहर से। मेट्रो को जाल चारों ओर सलीके से बिछा है। आसानी से पहुँच सकते हैं। वैशाली से ब्लू लाइन सीधे राजीव चौक जाती है। मेट्रो कार्ड जेब में था इसलिए वैशाली स्टेशन पर टोकन नहीं लेना पड़ा। भीड़भाड़ थी। कुछ यात्री खड़े तो कुछ पड़े थे। अपने-अपने मोबाइलों पर। ध्यान देने वाली बात ये है कि मेट्रो के यात्रियों में कुछ बातें कॉमन होती हैं। रोज चलने वाले कुछ न कुछ हरकत कर रहे होते हैं। वे इसके अभ्यस्थ हो चुके होते हैं। कभी-कभार वाले शांत और स्थिर रहते हैं। कपल हैं तो वे बिंदास बाते करेंगे बिना इस परवाह के कि कोई उन्हें सुन भी रहा है। कुछ मोबाइल पर इतनी जोर से गरजते हैं कि आसपास वालों को असहज लगता है। कभी-कभी तो वो थूक की बूंदाबांदी भी कर देते हैं। मेट्रो में हाथ में मोबाइल और ईयरफोन तो मस्ट है। यात्रियों की भाव भंगिमाएं यहाँ देश की विविधता से अवगत कराती हैं। कुछ यात्री तटस्थ भी होते हैं। वह स्थिर होकर अपने प्लेटफार्म का इंतजार करते हैं। ऐसे महापुरूष यात्री कम ही मिलेंगे। राजीव चौक पहुंचती ही यात्रियों की भीड़ में मैं भी मिल गया। चौक से मेट्रो बदली तो कई बार थी लेकिन एग्जिट पहली बार हो रहा था। नोटिस बोर्ड को देखते-देखते गेट नंबर पांच-छह तक पहुंचा। जनपथ और पालिका बाजार के गेट से बाहर आया तो दृश्य से परिचय सा लगा। तय किया सीपी का पूरा एक राउंड लिया जाए। गोल-गोल घूमना शुरू किया। आंखें एक जगह टिक ही नहीं रही थी। कभी सीपी के खंबों, कभी शोरूम तो कभी आने-जाने वालों को देखती। धीरे-धीरे बढ़ता गया। चहल-पहल उतनी नहीं थी जितनी शाम में रहती है। गुमशुदा के पोस्टर पर नजर पड़ी तो दिल्ली क्राइम की याद आ गई।
विदेशी युवती को देखकर एक ऑटो वाला लपका। दूसरे ने उसे यह कहते हुए रोक लिया कि यह भारतीय विदेशी है। गजब की पहचान थी उसकी। यह भारत की है, बाहर रहती है। वह बोला। यह सुनकर ऑटो वाला रूक गया। दिल्ली में विदेशी सवारी मिल जाए यह मनोकामना कुछ ऑटो वालों की रहती है। वह उन्हें हैंडिल करने भर की अंग्रेजी बोल लेते हैं। किराया मर्जी का मिल जाता है। यह आकर्षण उन्हें विदेशियों के पीछे भागने को मजबूर करता है।
कुछ देर गोल-गोल घूमने के बाद एक जगह बैठ गया। भूख लगी थी तो एक भेल पूरी बनवाई। सीपी पर भेल पूरी, पानी और कान साफ करने वालों की भरमार है। ये लोग टहलते मिल जाएंगे। वह ताड़ लेते हैं कि किसे भूख लगी और किसे प्यास और किसके कान में खुजली हो रही है। कान पर हाथ लगाने वाले ग्राहक हो सकते हैं। धीरे-धीरे चलने वाले भेल पूरी के ख्वाहिशमंद हो सकते हैं। अब खाएंगे तो पीएंगे भी। भेल पूरी खाते-खाते एक कान साफ करने वाला मेरा पास आया और पूछा सर कान साफ कर दूूं। नहाते समय साबुन चल जाता है। मैल होगा। पर मैंने उसे मना कर दिया। शिकंजी वाले ने शिकंजी पिलानी चाही लेकिन उसे भी निराशा मिली। कुछ देर बैठने के बाद मेट्रो के गेट में घुस गया। आते वक्त एक अच्छा काम यह किया कि मेट्रो कार्ड रिचार्ज करा लिया था। जब चला तो उसमें 63 रुपये थे। राजीव चौक पहुंचते ही भीड़ से फिर पाला पड़ा।
एक बार ख्याल आया कि बिना वजह घर से बाहर न निकला जाए। निकला भी जाए तो राजीव चौक न आया जाए। यहां किसी रूट पर अगर 10 मिनट ट्रेन नहीं आती तो घुटन होने लगती है। पांच मिनट इंतजार करते हो गए थे। इस बीच नजर दो हाथों पर गई। जिनके बीच में एक किताब थी। शायद अंग्रेजी का उपन्यास था। देखने से लगा। पहली बार किसी को स्टेशन पर खड़े-खड़े किताब पढ़ते हुए देखा। किताब का नाम जानने की कोशिश की, लेकिन मैं देख नहीं पाया। इस बीच ट्रेन आ गई। दिमाग में किताब के नाम का अंदाजा लगा ही रहा था कि गेट के सामने फिर उसी लड़की पर नजर गई। वह किताब में खोई हुई थी। शायद यह उसका रोज का काम था। अगला स्टेशन बाराखंभा आते ही वह उतर गई। बस, ट्रेन और स्टेशन पर किताब पढ़ने वाले कम ही दिखते हैं। लौटते हुए स्टेशनों पर अमृत महोत्सव के मौके पर क्रांतिवीरों और स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीर देखकर अच्छा लगा। इस बहाने कम से कम उन्हें याद तो किया जा रहा है।
- विपिन धनकड़
#connaught place#CP
#metro
👌👌
जवाब देंहटाएंThanks
जवाब देंहटाएं👍👍👍👍
जवाब देंहटाएंउत्तम रूपेण परिदृश्य प्रस्तुत किया, साधुवाद
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