विंटर ब्रेक

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सर्दी अकेली नहीं आती। अपने साथ विंटर ब्रेक, कोहरा, गलन भी लाती है। पहाड़ों पर बर्फ और मैदान पर शीतलहर का राज चलता है। एक चीज और लाती है सर्दी अपने साथ। न्यू ईयर। नये साल के जोश में चूर हम ठंड को ओढ़ते और बिछाते हैं। होटल, रेस्टोरेंट और सड़क पर जश्न मनाते हुए सर्दी का स्वागत करते हैं। सड़क पर ही बहुत से लोगों को कड़कड़ाती सर्दी सीमित कपड़ों और खुले आसमान में गुजारनी होती है।  चाय, काॅफी पीते और तापते हुए बोलते हैं ऐसी नहीं पड़ी पहले कभी। सर्दी का यह तकियाकलाम अखबारों में रोज रिकाॅर्ड बनाती और तोड़ती हेडलाइन को देखकर दम भरता है। मुझे विंटर ब्रेक का इंतजार औरों की तरह नहीं रहता। मैं पहाड़ों की जगह अपनी रजाई में घूम लेता हूं। मनाली, नैनीताल और मसूरी में गाड़ियों की कतार मुझे अपनी ओर नहीं खींच पाती। क्योंकि पत्नी और बेटे की छुट्टी रहती है और बाहर हम कम ही जाते हैं इसलिए मेरे ड्यूटी कुछ सख्त हो जाती है। रूटीन बेपटरी होने की शुरुआत अलार्म नहीं बजने से होती है। देर से सोना और सुबह जब मन करे उठना यह एैब इंसान को बर्बाद कर सकता है। दुनिया से काट देता है।  सर्दी बच्चों को बेकाबू होने की छूट देती है। नहान

लिंक खुल गया


बोर्ड की परीक्षा दिए 21 साल हो गए। अच्छे से याद है पेपर का हौव्वा दिमाग पर हावी रहता था। परीक्षा नजदीक आती ही तनाव और चिंता बढ़ने लगती। असर सिर्फ दिमाग तक सीमित नहीं रहता। शरीर के दूसरे अंगों पर भी होता। खासतौर पर पेट पर। पेट में तितलियां मचलने लगती थीं। तब तितलियों के मचलने की संज्ञा से वाकिफ नहीं था। जिंदगी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, कोस थीटा, एल्फा, बीटा, गामा और अल्ट्रा वायलेट किरणों के इर्द-गिर्द घूमती रहती। मतलब इनकी परिक्रमा कर रही होती। पेपर की स्कीम आते ही शारीरिक भाषा बदल जाती। रटना तेज हो जाता। यही चिंता सर्वोपरि थी। लंबे समय बाद पेट में वैसी ही तितलियां मचल उठी। पेपर मेरा नहीं था। एहसास जरूर थे। एक छोटी सी घटना ने परीक्षा के तनाव के दिन याद दिला दिए। 

यह संभव हुआ सुपुत्र के परीक्षा कार्यक्रम की कारण। वह कक्षा तीन में है। अंग्रेजी का इम्तिहान था। आजकल पढ़ाई ऑनलाइन मोड में फंसी है। पेपर का लिंक स्कूल के पोर्टल पर रात में ही प्रकट हो गया। शुरू सुबह नौ बजे होना था। साढ़े आठ बजे लिंक पर क्लिक किया तो मोबाइल ने रेस्पांड नहीं किया। मतलब लिंक खुला नहीं। दिमाग में चिंता का केमिकल दौड़ने लगा। पिछले पेपरों में ऐसा नहीं हुआ था। तकनीकी कारण से लिंक नहीं खुल रहा था। टेंशन होनी लगी। बच्चे को लेकर ज्यादा थी। उसकी नन्ही मनोस्थिति को अपनी में उतारकर सोच रहा था तो मुझे ज्यादा चिंता होने लगी। भागा-भागा स्कूल पहुंचा। परेशानी साझा की लेकिन हल नहीं निकला। नुक्श मेरे मोबाइल में था। घर में एक और मोबाइल है। पत्नी का है। वे सुबह सात बजे स्कूल चली गई थीं। उनको फोन किया। मोबाइल लेने के लिए स्कूल की ओर दौड़ लगा दी। दिल्ली की सड़कों पर जाम परमानेंट है। कभी भी आप इसमें फंस सकते हैं। बाॅर्डर एरिया का हाल तो पूछिए मत। किसान आंदोलन की वजह से यूपी गेट के आसपास के रास्तों पर वाहनों का दबाव रहता है। वाहन चलने से ज्यादा खड़े रहते हैं। मार्जन लेकर नहीं निकले तो समय पर ऑफिस पहुंच लिए। नौ बजने वाले थे। वाहनों की भीड़ में मेरी स्कूटी खाली स्थान तलाशती हुई धीरे-धीरे बढ़ रही थी। थोड़ा तेज चलाने की कोशिश करता, लेकिन दाएं-बाएं से आने वाले वाहन चालक अपनी ट्रैफिक सेंस से मुझे डरा रहे थे। जूझते और हांफते हुए स्कूल पहुंचा और श्रीमति जी का मोबाइल लपकर उसी अंदाज में वापस हो लिया। लौटते हुए भी इसी अनुभव की अनुभूति हुई। दिमाग में बेटे की फिक्र की फिक्र चल रही थी। किसी तरह साढ़े नौ बजे तक घर पहुंच गया। लाडला गेट पर ही था। पापा कहां रह गए थे, स्कूल से आने में इतनी देर लगा दी। लिंक खुला या नहीं। मेरे पेपर का क्या होगा। जैसे सवाल पूछे तो उसने लघु उत्तरीय थे, लेकिन मैंने जवाब उसके सिर पर हाथ रखकर एमसीक्यू अंदाज में दिया। लिंक खुल गया। विस्तार उत्तर देने का वक्त भी नहीं था। ऑफलाइन परीक्षा में इस तरह का खतरा नहीं होता। नेटवर्क और तकनीकी परेशान नहीं करती। बस तय समय पर केंद्र पर जा धमकना है। ऑफलाइन मोड में तकनीक कभी भी गच्चा दे सकती है। इसलिए बैकअप जरूरी है।


- विपिन धनकड़ 


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