लगेज कुछ कहता है
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बात कल रात की है। ऑफिस से लौट रहा था। रास्ते में मोहननगर के पास एक व्यक्ति ने लिफ्ट के लिए इशारा किया। आधी रात गुजर चुकी थी। सड़क पर सन्नाटा सो रहा था। आसपास कोई नहीं। मैं अकेला। इस सोच में आगे बढ़ गया। अचानक नजर एक चीज पर पड़ी। फिर ब्रेक लगा दिए। मुड़कर देखा तो वह व्यक्ति दौड़ता हुआ आ रहा है। 'आई केम फ्राम जालंधर।' दो-तीन वाक्य अंग्रेजी में बोलते हुए उसने लिफ्ट देने का एहसान उतारने की कोशिश की। मैंने सिर हिलाते हुए उसकी भावना स्वीकार की।
कुछ देर में वो अजनबी देशी हिंदी पर आ गया। 'सर बस को नौ बजे पहुंचना था, लेकिन रास्ते रूके होने के कारण बस रूट बदलकर आई और इतना वक्त लग गया। ऑटो वाले किसी की सुनते नहीं हैं। आधा घंटे से हाथ दे रहा हूं कोई रूकता ही नहीं। लिफ्ट भी नहीं मिल रही थी। इतनी रात में शायद मैं भी नहीं देता। आप अच्छे इंसान हैं। लगेज भारी है, इसलिए पैदल नहीं चल पा रहा था।' दरअसल, लगेज देखकर ही मैंने ब्रेक लगाए थे। इतनी रात में भारी लगेज के साथ मदद मांगने वाला कोई मुसाफ़िर ही हो सकता है। वैसे होने को तो कोई भी हो सकता है! 'लिफ्ट लेकर इंजीनियर लूटा' 'पहले लिफ्ट ली फिर लूट की' ऐसे शीर्षक से खबरें छपती रहती हैं। लेकिन अनुभव और सेंस साथ दे तो गलत होने की संभावना कम है। साहिबाबाद मंडी के सामने उस अजनबी को ड्राप किया। घर आने पर लगा कि कुछ देर और अजनबी से बात कर लेनी चाहिये थी। नाम क्या है, क्या करते हैं? आदि बातें होती तो हो सकता है कुछ जान पहचान बढ़ती।
लगेज से जुड़ा एक और अनुभव आपके साथ साझा करना चाहता हूं। बात तीन साल पुरानी है। इलाहाबाद जाना हुआ था। पत्नी की उच्च शिक्षा चयन के लिए परीक्षा दिलाने। बेटा करीब पांच साल का था। कई परीक्षाएं हमने सपरिवार दी हैं। तीन लोग और दो दिन की यात्रा। जायेंगे तो लगेज आपका हमसफर हो जाएगा। ट्रॉली स्टाइल का बड़ा सा लगेज लेकर हम निकल पड़े। मेट्रो और ट्रेन पकड़ने की भागमभाग में लगेज की सहूलियत का पता चला। लौटते वक्त वैशाली मेट्रो स्टेशन पर किसी ने पर्स मार लिया। पर्स में पैसे तो बहुत अधिक नहीं थे, लेकिन आईडी और डेबिट कार्ड जाने का दुख हुआ। जब तक कार्ड ब्लाॅक नहीं हो गया, टेंशन रही। कई दिन तक यह खलता रहा। दरअसल यहां चोरी और लगेज के बीच कनेक्शन था। मेट्रो के पाॅकेटमार की माॅडस ऑपरेंडी में लगेज अहम हिस्सा है। वह अपनी कार्यकुशलता लगेजधारी सवारियों पर ही खर्च करते हैं। उनको मालूम है कि लगेज कैरी करने वाला पर्स में कुछ कैश लेकर भी चलता है। रोज की सवारी का पर्स मारने से उन्हें उतने पैसे नहीं मिलेंगे। जबिक खतरा बराबर का है। फिर वे घाटे का सौदा क्यों चुने?
चलते-चलते
कहानी में लगेज के दो पहलू हैं। पहला आप किसी की मदद कर सकते हैं। बस, ट्रेन, प्लेन में लगेज उठाकर या सरकाकर। इसमें आपका कुछ जाने वाला नहीं है। दूसरी बात अपने सामान की रक्षा स्वंय करें। बसों में पढ़ा होगा। यह आधार वाक्य मेट्रो या प्लेन में लिखा नहीं मिलेगा। अपने सामान की रक्षा खुद ही करनी है।
टिप्पणियाँ
Bahut sahi aur logicsl baat
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी।
हटाएंLuggage is our companion in the childhood it was School beg College Beg later in the rest of life person lift lots of invisible begs
जवाब देंहटाएंNice thoughts sir.
हटाएंआपका आभार।
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