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मार्च, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विंटर ब्रेक

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सर्दी अकेली नहीं आती। अपने साथ विंटर ब्रेक, कोहरा, गलन भी लाती है। पहाड़ों पर बर्फ और मैदान पर शीतलहर का राज चलता है। एक चीज और लाती है सर्दी अपने साथ। न्यू ईयर। नये साल के जोश में चूर हम ठंड को ओढ़ते और बिछाते हैं। होटल, रेस्टोरेंट और सड़क पर जश्न मनाते हुए सर्दी का स्वागत करते हैं। सड़क पर ही बहुत से लोगों को कड़कड़ाती सर्दी सीमित कपड़ों और खुले आसमान में गुजारनी होती है।  चाय, काॅफी पीते और तापते हुए बोलते हैं ऐसी नहीं पड़ी पहले कभी। सर्दी का यह तकियाकलाम अखबारों में रोज रिकाॅर्ड बनाती और तोड़ती हेडलाइन को देखकर दम भरता है। मुझे विंटर ब्रेक का इंतजार औरों की तरह नहीं रहता। मैं पहाड़ों की जगह अपनी रजाई में घूम लेता हूं। मनाली, नैनीताल और मसूरी में गाड़ियों की कतार मुझे अपनी ओर नहीं खींच पाती। क्योंकि पत्नी और बेटे की छुट्टी रहती है और बाहर हम कम ही जाते हैं इसलिए मेरे ड्यूटी कुछ सख्त हो जाती है। रूटीन बेपटरी होने की शुरुआत अलार्म नहीं बजने से होती है। देर से सोना और सुबह जब मन करे उठना यह एैब इंसान को बर्बाद कर सकता है। दुनिया से काट देता है।  सर्दी बच्चों को बेकाबू होने की छूट देती है। नहान

लिंक खुल गया

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बोर्ड की परीक्षा दिए 21 साल हो गए। अच्छे से याद है पेपर का हौव्वा दिमाग पर हावी रहता था। परीक्षा नजदीक आती ही तनाव और चिंता बढ़ने लगती। असर सिर्फ दिमाग तक सीमित नहीं रहता। शरीर के दूसरे अंगों पर भी होता। खासतौर पर पेट पर। पेट में तितलियां मचलने लगती थीं। तब तितलियों के मचलने की संज्ञा से वाकिफ नहीं था। जिंदगी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, कोस थीटा, एल्फा, बीटा, गामा और अल्ट्रा वायलेट किरणों के इर्द-गिर्द घूमती रहती। मतलब इनकी परिक्रमा कर रही होती। पेपर की स्कीम आते ही शारीरिक भाषा बदल जाती। रटना तेज हो जाता। यही चिंता सर्वोपरि थी। लंबे समय बाद पेट में वैसी ही तितलियां मचल उठी। पेपर मेरा नहीं था। एहसास जरूर थे। एक छोटी सी घटना ने परीक्षा के तनाव के दिन याद दिला दिए।  यह संभव हुआ सुपुत्र के परीक्षा कार्यक्रम की कारण। वह कक्षा तीन में है। अंग्रेजी का इम्तिहान था। आजकल पढ़ाई ऑनलाइन मोड में फंसी है। पेपर का लिंक स्कूल के पोर्टल पर रात में ही प्रकट हो गया। शुरू सुबह नौ बजे होना था। साढ़े आठ बजे लिंक पर क्लिक किया तो मोबाइल ने रेस्पांड नहीं किया। मतलब लिंक खुला नहीं। दिमाग में चिंता का केमिकल दौड़ने ल

लगेज कुछ कहता है

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  बात कल रात की है। ऑफिस से लौट रहा था। रास्ते में मोहननगर के पास एक व्यक्ति ने लिफ्ट के लिए इशारा किया। आधी रात गुजर चुकी थी। सड़क पर सन्नाटा सो रहा था। आसपास कोई नहीं। मैं अकेला। इस सोच में आगे बढ़ गया। अचानक नजर एक चीज पर पड़ी। फिर ब्रेक लगा दिए। मुड़कर देखा तो वह व्यक्ति दौड़ता हुआ आ रहा है। 'आई केम फ्राम जालंधर।' दो-तीन वाक्य अंग्रेजी में बोलते हुए उसने लिफ्ट देने का एहसान उतारने की कोशिश की। मैंने सिर हिलाते हुए उसकी भावना स्वीकार की।  कुछ देर में वो अजनबी देशी हिंदी पर आ गया। 'सर बस को नौ बजे पहुंचना था, लेकिन रास्ते रूके होने के कारण बस रूट बदलकर आई और इतना वक्त लग गया। ऑटो वाले किसी की सुनते नहीं हैं। आधा घंटे से हाथ दे रहा हूं कोई रूकता ही नहीं। लिफ्ट भी नहीं मिल रही थी। इतनी रात में शायद मैं भी नहीं देता। आप अच्छे इंसान हैं। लगेज भारी है, इसलिए पैदल नहीं चल पा रहा था।' दरअसल, लगेज देखकर ही मैंने ब्रेक लगाए थे। इतनी रात में भारी लगेज के साथ मदद मांगने वाला कोई मुसाफ़िर ही हो सकता है। वैसे होने को तो कोई भी हो सकता है! 'लिफ्ट लेकर इंजीनियर लूटा' 'पहले लिफ