विंटर ब्रेक

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सर्दी अकेली नहीं आती। अपने साथ विंटर ब्रेक, कोहरा, गलन भी लाती है। पहाड़ों पर बर्फ और मैदान पर शीतलहर का राज चलता है। एक चीज और लाती है सर्दी अपने साथ। न्यू ईयर। नये साल के जोश में चूर हम ठंड को ओढ़ते और बिछाते हैं। होटल, रेस्टोरेंट और सड़क पर जश्न मनाते हुए सर्दी का स्वागत करते हैं। सड़क पर ही बहुत से लोगों को कड़कड़ाती सर्दी सीमित कपड़ों और खुले आसमान में गुजारनी होती है।  चाय, काॅफी पीते और तापते हुए बोलते हैं ऐसी नहीं पड़ी पहले कभी। सर्दी का यह तकियाकलाम अखबारों में रोज रिकाॅर्ड बनाती और तोड़ती हेडलाइन को देखकर दम भरता है। मुझे विंटर ब्रेक का इंतजार औरों की तरह नहीं रहता। मैं पहाड़ों की जगह अपनी रजाई में घूम लेता हूं। मनाली, नैनीताल और मसूरी में गाड़ियों की कतार मुझे अपनी ओर नहीं खींच पाती। क्योंकि पत्नी और बेटे की छुट्टी रहती है और बाहर हम कम ही जाते हैं इसलिए मेरे ड्यूटी कुछ सख्त हो जाती है। रूटीन बेपटरी होने की शुरुआत अलार्म नहीं बजने से होती है। देर से सोना और सुबह जब मन करे उठना यह एैब इंसान को बर्बाद कर सकता है। दुनिया से काट देता है।  सर्दी बच्चों को बेकाबू होने की छूट देती है। नहान

लालटेन से मोबाइल तक आंदोलन

महेंद्र सिंह टिकैत के आंदोलन का फाइल फोटो। 

भारत एक आंदोलन प्रधान देश है। हर वक्त देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई आंदोलन हो रहा होता है। यह नीति, कानून और सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने और मांग मनवाने का आंदोलन सबसे मजबूत लोकतांत्रिक  माध्यम है। आंदोलन इस बात का भी प्रतीक है कि लोकतंत्र कायम है। अधिकार और आवाज उठाने के प्रति नागरिक जागरूक हैं। आंदोलन के समानांतर राजनीति भी चलती है। सिर्फ इस वजह से आंदोलन की वजहों को खारिज नहीं किया जा सकता। काबिले गौर है कि वक्त के साथ आंदोलन भी बदले हैं। इनका बदलता स्वरूप दुनिया का ध्यान खींच रहा है। सोशल मीडिया ने आंदोलन को व्यापक और अंतर्राष्ट्रीय बना दिया है।

आसान नहीं आंदोलन

ऐसे समय में जब हम परिवार को एकजुट नहीं रख पा रहे, आंदोलन खड़ा करना आसान काम नहीं है। आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जाएं तो पाएंगे शुरूआत देशभक्ति के साथ हुई थी। अंग्रेजों को खदेड़ने में एकजुटता का दूसरा उदाहरण आसानी से नहीं मिलेगा। बदलते दौर में लोगों की सोच बदलती गई और परिवार टूटते गए। गांव से शहरों में पलायन बढ़ा। व्यवसायिक विचारधारा के बीच आंदोलन खड़े करना टेढ़ी खीर है। देश में किसानों के हक और हकूक के लिए आंदोलन करने के लिए चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत को जाना जाता है। उनकी एक आवाज पर हजारों लाखों किसान बुलंदी के साथ खड़े हो जाते थे। टिकैत जहां बैठ गए, समझ लीजिए प्रशासन और सरकार घुटनों पर आ गई। वह अपनी मांग मनवाकर ही उठते थे। सादगी और शिष्टाचार उनके आंदोलन का गहना था। किसानों की मांग मनवाने के लिए वह तंत्र की ऐसी घेराबंदी करते थे कि सिस्टम को झुकना ही पड़ता था। 


बदल रहे आंदोलन 

अब आंदोलन का तरीका बदल चुका है। भैंसा-बुग्गी, बैलगाड़ी की जगह ट्रैक्टर-टाॅली और गाड़ियों ने ले ली है। भाकियू के नेता उदयवीर सिंह के मुताबिक 20-25 साल पहले जब किसान आंदोलन करने के लिए निकलते थे तो राशन के अलावा लालटेन और केरोसिन लेकर चलते थे। तब स्ट्रीट लाइट कम थी। तंबू लगाकर खुद खाना बनाते थे। अब काफी कुछ बदला है। लाइट की समस्या नहीं रही। आंदोलन में राजनीतिक हित साधने वाले घुस जाते हैं। उनका मकसद अपनी राजनीति चमकाना होता है। इससे कई बार आंदोलन की साख पर सवाल खड़े होते हैं, लेकिन सच तो अटल है। किसान के हौसले की तरह। पहले आंदोलनकारी धोती-कुर्ता और कुर्ता-पायजामा वाले होते थे। अब जींस-टीशर्ट और चश्मेधारी भी हैं। नीयत अच्छी है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। आंदोलन को फैशन समझने वालों को यह समझ लेना चाहिये कि किसान अपने हक की लड़ाई के लिए सड़क पर आया है। आंदोलन में आने वाले हर व्यक्ति का स्वागत है। 

फोटो में मैं भी किसान

स्मार्टफोन की पैदाइश के बाद जब से सेल्फी युग आया है तो हर मौके सेल्फी का चलन बन गया है। आंदोलन भी इससे अछूते नहीं है। कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलनरत किसानों के बीच सेल्फी लेने वालों की होड़ है। टोपी लगी सेल्फी धड़धड़ा सोशल मीडिया पर अपलोड हो रही हैं। फेसबुक पर लाइव चल रहा है। सोशल मीडिया की वजह से आंदोलन अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। देश ही नहीं दुनिया के कोने-कोने से किसानों को समर्थन मिल रहा है। हाथ में लिए मोबाइल से कुछ लोग आंदोलन को अपनी-अपनी जरूरत के हिसाब से हथियाना चाहते हैं। किसान हितैषी होने की भावनाओं का ज्वार देश में देखने को मिल रहा है। सरकार भी अपनी ओर से किसानों की खातिरदारी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। वो बात अलग है किसान प्रतिनिधि खातिरदारी को दरकिनार कर अपनी मांग मनवाने पर अड़े हैं। आंदोलन को जिस तरह का समर्थन मिल रहा है, वह दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा है। किसानों की आवाज बुलंद और कड़क होती जा रही है। फर्जा का संचार बढ़ता जा रहा है। 

उम्र का नहीं बंधन

किसान आंदोलन की खूबसूरती यह है कि इसमें मिलावट और दिखावट नहीं होती। जैसे हैं, वैसे ही दिखेंगे। देशी अंदाज में बातें और सड़क किनारे तंबू में रात गुजारने में दिक्कत नहीं है। आंदोलन में बुजुर्गों की संख्या खासी रहती है। बुजुर्ग किसान दो जोड़ी कुर्ता-पायजामा के साथ आंदोलन का हिस्सा बन जाते हैं। उम्र का कोई बंधन नहीं है। 70 साल से लेकर 20 साल तक के युवा आपको आंदोलन में दिख जाएंगे। कुछ तो परिवार समेत आए हैं। महिलाएं भी आंदोलन का हिस्सा बन रही हैं। बुजुर्ग किसानों की मिसाल और कहावतें पढ़े-लिखे लोगों के तर्क पर भारी रहती हैं। वह अपनी तजुर्बे से जिस तरह सरकार और नीतियों को चुनौती देते हैं, उससे लगता है कि रणनीतिकारों से चूक हुई है। किसान नेता उदयवीर का कहना है आजादी के बाद से किसान की आय में करीब 45 गुना की बढ़ोतरी हुई है, जबकि नौकरीशुदा की आमदनी 100 गुना से अधिक बढ़ चुकी है। 

चलते-चलते

किसान और आंदोलन का चौली-दामन का साथ रहा है। उनको आसानी से कभी कुछ नहीं मिला। खेत में फसल भी तभी लहलहाती है, जब खाद-पानी के अलावा किसान का पसीना बहा हो। फिर वाजिब दाम और हक आसानी से कैसे मिल सकता है। 


- विपिन धनकड़ 


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