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अप्रैल, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विंटर ब्रेक

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सर्दी अकेली नहीं आती। अपने साथ विंटर ब्रेक, कोहरा, गलन भी लाती है। पहाड़ों पर बर्फ और मैदान पर शीतलहर का राज चलता है। एक चीज और लाती है सर्दी अपने साथ। न्यू ईयर। नये साल के जोश में चूर हम ठंड को ओढ़ते और बिछाते हैं। होटल, रेस्टोरेंट और सड़क पर जश्न मनाते हुए सर्दी का स्वागत करते हैं। सड़क पर ही बहुत से लोगों को कड़कड़ाती सर्दी सीमित कपड़ों और खुले आसमान में गुजारनी होती है।  चाय, काॅफी पीते और तापते हुए बोलते हैं ऐसी नहीं पड़ी पहले कभी। सर्दी का यह तकियाकलाम अखबारों में रोज रिकाॅर्ड बनाती और तोड़ती हेडलाइन को देखकर दम भरता है। मुझे विंटर ब्रेक का इंतजार औरों की तरह नहीं रहता। मैं पहाड़ों की जगह अपनी रजाई में घूम लेता हूं। मनाली, नैनीताल और मसूरी में गाड़ियों की कतार मुझे अपनी ओर नहीं खींच पाती। क्योंकि पत्नी और बेटे की छुट्टी रहती है और बाहर हम कम ही जाते हैं इसलिए मेरे ड्यूटी कुछ सख्त हो जाती है। रूटीन बेपटरी होने की शुरुआत अलार्म नहीं बजने से होती है। देर से सोना और सुबह जब मन करे उठना यह एैब इंसान को बर्बाद कर सकता है। दुनिया से काट देता है।  सर्दी बच्चों को बेकाबू होने की छूट देती है। नहान

उनकी जेब में पेन हमारा है

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टचस्क्रीन पर लिखने के दौर में भी पेन का महत्व कम नहीं हुआ है। आजकल ऑनलाइन अधिक लिखा जा रहा है। लिखने से अधिक कट पेस्ट हो रहा है। खैर, जिसको जो आता है, वो वही करेगा। बात पेन की है। घर से निकलते ही जेब में पेन न हो तो समझ लो लिखने-पढ़ने वालों की आत्मा छूट गई है। लेखक लोग पेन को लेकर गंभीर रहते हैं, पता नहीं कब कौन सा ख्याल टपक जाए। लेकिन कभी-कभार भूलचूक हो जाती है। मुद्दा यह है कि पेन भूलचूक, लापरवाही और बेशर्मी की भेंट चढ़ रहे हैं। बहुत सी जेब ऐसी हैं, जिसमें पेन कमीज के मालिकों का नहीं होता। वह किसी का मांगा हुआ, हड़पा हुआ या उधार का होता है। पेन हड़प लेना और उसे भूल करार देना भी एक कला है। पेन का बाजार इस कला पर टिका है। मेरे न जाने कितने पेन दूसरे की जेब की शोभा बन चुके हैं। उनकी अंगुुलियां लिखते समय कभी भी बेशर्मी से नहीं कांपी। पेन आजकल खत्म नहीं हड़प होते हैं। इसने उसका मारा, उसने किसी ओर का। पेन के इधर से उधर होने का सिलसिला बताता है कि संविधान को लिखे हुए 70 साल से अधिक होने के बाद भी हम विकासशील क्यों हैं? जब पेन में हम आत्मनिर्भर नहीं हो सकते तो बाकी का क्या कहना। यह लत इतनी बिगुड़

मेट्रो में मच्छर

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इन दिनों डीएमआरसी को मच्छरों की खूब शिकायत मिल रही है। वह मेट्रो में जबरन घुसकर सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जी उड़ा रहे हैं। बस और ट्रेन में तो आर-पार होने की सुविधा है, लेकिन मेट्रो में यह स्काॅप नहीं है। वह यात्रियों की तरह स्टेशन पर ही चढ़ते और उतरते हैं। वातानुकूलित माहौल में यात्रियों से लिपट-चिपटकर यात्रा कर रहे हैं। यमुना बैंक मेट्रो स्टेशन इनका गढ़ है। यमुना जी में डुबकी लगाकर ये रसपान के लिए मेट्रो में सवार हो जाते हैं। एक रोज इनके साथ सफर करने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ।  मुझे नेहरू प्लेस जाना था। दिल्ली में सफर के लिए मेट्रो से बेहतर कोई सुविधा नहीं है। इसलिए आना-जाना इसी किया। लौटते वक्त शाम हो गई। युमना बैंक स्टेशन पर जैसे ही मेट्रो के दरवाजे बाईं और दायीं और खुले मच्छरों की सेना घुस गई। मच्छर ज्यादा चढ़े या सवारी कहना मुश्किल है। उनको बिना भेदभाव के सवारियों के चारों ओर मंडराता देख मेरी आंखों में आंसू आ गए। एक मच्छर तो उनमें डूबते-डूबते बचा। जिनका कान पर ईयर फोन लगे थे, वे भिन्नभिनाहट तो नहीं सुन पा रहे थे, लेकिन मच्छरों के सुर पर इधर-उधर मटक रहे थे। वे किसी के मेकअप पर बैठे त