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दिसंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विंटर ब्रेक

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सर्दी अकेली नहीं आती। अपने साथ विंटर ब्रेक, कोहरा, गलन भी लाती है। पहाड़ों पर बर्फ और मैदान पर शीतलहर का राज चलता है। एक चीज और लाती है सर्दी अपने साथ। न्यू ईयर। नये साल के जोश में चूर हम ठंड को ओढ़ते और बिछाते हैं। होटल, रेस्टोरेंट और सड़क पर जश्न मनाते हुए सर्दी का स्वागत करते हैं। सड़क पर ही बहुत से लोगों को कड़कड़ाती सर्दी सीमित कपड़ों और खुले आसमान में गुजारनी होती है।  चाय, काॅफी पीते और तापते हुए बोलते हैं ऐसी नहीं पड़ी पहले कभी। सर्दी का यह तकियाकलाम अखबारों में रोज रिकाॅर्ड बनाती और तोड़ती हेडलाइन को देखकर दम भरता है। मुझे विंटर ब्रेक का इंतजार औरों की तरह नहीं रहता। मैं पहाड़ों की जगह अपनी रजाई में घूम लेता हूं। मनाली, नैनीताल और मसूरी में गाड़ियों की कतार मुझे अपनी ओर नहीं खींच पाती। क्योंकि पत्नी और बेटे की छुट्टी रहती है और बाहर हम कम ही जाते हैं इसलिए मेरे ड्यूटी कुछ सख्त हो जाती है। रूटीन बेपटरी होने की शुरुआत अलार्म नहीं बजने से होती है। देर से सोना और सुबह जब मन करे उठना यह एैब इंसान को बर्बाद कर सकता है। दुनिया से काट देता है।  सर्दी बच्चों को बेकाबू होने की छूट देती है। नहान

नए साल पर आपके के लिए कुछ सोचा है

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साल दर साल गुजरते हैं। कैलेंडर बदलने से पहले दिमाग में संकल्प और लक्ष्य तय करने की उमंग उठने लगती है। मीडिया और बाजार मिलकर इसको हवा देते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। बस, ज्यादातर संकल्प नए साल के पहले सप्ताह में ही दम तोड़ जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि हम कोई संकल्प न लें। कमी कोशिश की है। निरंतरता की है। जिसे हम में से बहुत सारे नहीं करते। कुछ भी ठानने के लिए किसी तारीख का मोहताज नहीं हुआ जा सकता। जरूरत इच्छाशक्ति की है। और पूरा करने के लिए निरंतर प्रयास की। वक्त बदलने में लगता है वक्त समय बड़ा बलवान है। यह जब, जिसका बदलता है, वह बलशाली हो जाता है। लेकिन यह कोई नहीं बता सकता कि कब बदलेगा? हां, कैसे बदलेगा, इसकी रूपरेखा जरूर तैयार की जा सकती है। कुछ चीजें के लिए समय तय है। जैसे ऑफिस कब जाना है? स्कूल की छुट्टी कब होगी? टेस्ट मैच पांच दिन का होगा। बड़ी कामयाबी हासिल करने के लिए एक बात अच्छे से जान लीजिए, ये एक दिन का काम नहीं है। यह कब मिलेगी, यह भी तय नहीं किया सकता है। लेकिन निरंतर प्रयास और सुधार के साथ बड़ी उपलब्ध्यिां इतिहास में दर्ज होती रही हैं। कोई भी बड़ी खोज सालों की मेहनत और

रिश्तों में म्यूटेशन

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Mutations in Relationships म्यूटेशन का दौर है। वैज्ञानिक कोरोना के वायरस में म्यूटेशन का पता लगाने के लिए लैब में दिन रात खर्च कर रहे हैं। बता दें कि म्यूटेशन कोई नया शब्द नहीं है। इसका शाब्दिक अर्थ है बदलाव या परिवर्तन। कोरोना के बार-बार म्यूटेशन से वैज्ञानिक भौचक्के हैं। इस बदलाव पर वह दूरबीन गढ़ाए बैठे हैं। साइंस के दुनिया की इस सनसनी से थोड़ा हटकर देखें तो पाएंगे कि ढेर सारे म्यूटेशन के बीच हम जिंदगी बसर करते हैं। इसके हम अभ्यस्त हैं। सामाजिक जीवन में रिश्तों के इतने म्यूटेशन से हम गुजर रहे हैं या चुके हैं कि गिनती करना मुश्किल है। इम्युनिटी इतनी मजबूत हो चुकी है कि हर म्यूटेशन को सह जाते हैं। जिनकी कमजोर है, वह टूटकर बिखर जाते हैं। उन पर इलाज असर नहीं करता। फिर भी यह दावा किया जा सकता है कि हमारा सर्वावाइल अच्छा है, घबराने की कोई जरूरत नहीं है। वैसे जिंदगी में रिश्तों के म्यूटेशन से हर कोई गुजरता है। बस जरूरत इसे महसूस करने की है।  पति-पत्नी Husband Wife इस रिश्ते को म्यूटेट होने से कोई भी विद्वान आज तलक रोक नहीं पाया। मानकर चल सकते हैं कि सात फेरे पड़ने के बाद रिश्ते में कम से कम सा

चलो किसी चूल्हे के पास बैठें

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सर्दी में ठिठुरते होंठ, कांपते हाथ और थरथर्राते बदन को तपिश की दरकार होती है। ठंड जब शरीर के आरपार हो रही हो। हवा की छुअन नाकाबिले बर्दाश्त हो जाए और धूप के इंतजार में प्राण सूखने लगे तो ऐसे में चूल्हा एक सहारा है, सर्दी का सितम कम करने का। वैसे तो तपिश प्राप्त करने के हमने और भी कृत्रिम साधन जुटा लिए हैं, लेकिन चूल्हे की बात ही कुछ और है। तपन और बातचीत से शरीर का ताप बढ़ने से ठंड से तो राहत मिलती ही है, रूह को भी चैन आ जाता है। चूल्हे से परिवार की वो यादें भी जुड़ी हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। शिकने के वो ठिकाने आज भी जहन में धधक रहे हैं, जहां सर्दी आते ही आग सुलगने लगती है।  सर्दी का मौसम है मितवा मौसम ने तमाम एहसास को अपने दामन में छिपा रखा है। गर्मी, सर्दी, बारिश, पतझड़ सबमें संवेदनाओं का भंडार छिपा है। शब्दों के रचानाकर अपने-अपने हिसाब से संवेदनाओं को उकेरते रहते हैं। सबका अपना-अपना नजरिया है। मौसम में सर्दी की बात कुछ अलग है। ये इतराती हुई आती है। दरसअल हर चीज सर्दी में खूबसूरती हासिल कर रही होती है। धूप का नूर चारों और चमक बिखेर देता है। फसल और इंसान धूप में अंगड़ाई लेकर खिल उठ

सेल्फी की महिमा

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स्मार्टफोन की पदाईश के बाद जब से सेल्फी युग आया है, मोबाइलधारकों को सातों दिन और 24 घंटे का काम मिल गया है। कहने को वो बेरोजगार हो सकते हैं, लेकिन फोन पर इतने व्यस्त हैं कि घरवालों की बात दाएं-बाएं कान से इधर-उधर होती रहती है। उधर फोन के स्मार्ट होने से फोटोग्राफर मायूस हैं। उनके पास खीचने के कम और फोटो प्रिंट होने के ऑर्डर अधिक आ रहे हैं। कैमरा भी टेंशन में है। उसकी सौतन जब से स्मार्टफोन के साथ सैट हुई है, धंधा चौपट हुआ जा रहा है। वैसे कैमरे वाले मोबाइल में खूबियों की भरमार है। वह दुमई की तरह दोनों तरफ से चलते हैं। किसी भी मुद्रा में और कभी भी सेल्फी ले सकने की खासियत ने उन्हें कालजयी बना दिया है। सेल्फी में मुस्कारने की अनिवार्यता भी नहीं रही। होठ जितने बाहर होंगे, सेल्फी उतनी ही हाॅट होगी। ऐसी धारणा कायम है। हाल चाहे जितने फटे हो, लेकिन हाथ में चमचाता फोन है तो समझ लीजिए आप स्मार्ट हैं। स्मार्टफोन की उपलब्धता ने लोगों की जिंदगी इतनी ज्यादा लाइव कर दी है कि कभी-कभी तो वो भी ऑनलाइन हो जाता है, जो नहीं होना चाहिये। ये रिश्ते बनाने और बिगाड़ने दोनों का काम कर रहा है। यह तो संचालक की काबि

लालटेन से मोबाइल तक आंदोलन

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महेंद्र सिंह टिकैत के आंदोलन का फाइल फोटो।  भारत एक आंदोलन प्रधान देश है। हर वक्त देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई आंदोलन हो रहा होता है। यह नीति, कानून और सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने और मांग मनवाने का आंदोलन सबसे मजबूत लोकतांत्रिक  माध्यम है। आंदोलन इस बात का भी प्रतीक है कि लोकतंत्र कायम है। अधिकार और आवाज उठाने के प्रति नागरिक जागरूक हैं। आंदोलन के समानांतर राजनीति भी चलती है। सिर्फ इस वजह से आंदोलन की वजहों को खारिज नहीं किया जा सकता। काबिले गौर है कि वक्त के साथ आंदोलन भी बदले हैं। इनका बदलता स्वरूप दुनिया का ध्यान खींच रहा है। सोशल मीडिया ने आंदोलन को व्यापक और अंतर्राष्ट्रीय बना दिया है। आसान नहीं आंदोलन ऐसे समय में जब हम परिवार को एकजुट नहीं रख पा रहे, आंदोलन खड़ा करना आसान काम नहीं है। आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जाएं तो पाएंगे शुरूआत देशभक्ति के साथ हुई थी। अंग्रेजों को खदेड़ने में एकजुटता का दूसरा उदाहरण आसानी से नहीं मिलेगा। बदलते दौर में लोगों की सोच बदलती गई और परिवार टूटते गए। गांव से शहरों में पलायन बढ़ा। व्यवसायिक विचारधारा के बीच आंदोलन खड़े करना टेढ़ी खी

तो इसलिए शहर में आ रहे तेंदुए!

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So that's why leopards coming into the city घर इंसान का हो या फिर जानवर का, छोड़कर जाने की वजह होती है। इंसान की जरूरत रोटी, कपड़ा और मकान है। इनको हासिल करने की जद्दोजहद में वह घर और परिवार छोड़ता है। जानवर को कपड़ा तो नहीं चाहिये, लेकिन भरपेट भोजन और सिर छिपाने को जगह की दरकार उसे भी है। इस वजह से आय दिनों शहरों में तेंदुआ आने का शोर सुनाई पड़ता है। साल दर साल इस शोर का दायरा बढ़ता ही जा रहा है। देश की राजधानी से लेकर बड़े-बड़े शहरों की सड़कों पर तेंदुओं की चहलकदमी आम लोगों को परेशान करने वाली है। अहम बात यह है तेंदुआ देखे जाने के बाद अगर वह पकड़ा न जाए तो उसके जाने की अधिकारिक पुष्टि नहीं की जाती। संभावना के आधार पर मामला रफादफा कर दिया जाता है।  क्यों आ रहे बार-बार ? (Why are you coming again and again) तेंदुआ एक जंगली जानवर है। दूसरे जानवरों की तरह उसकी जिंदगी भी जंगल में सिमटी है। भोजन, पानी, आराम और प्रजनन जंगल के इर्द-गिर्द होता है। दिक्कत तब शुरू होती है, जब तेंदुआ अपना घर छोड़कर हमारे घर में दाखिल होता है। जानकारों के मुताबिक इसकी दो मुख्य वजह हैं। पहली भोजन की तलाश और दूसरी रास्ता